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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत । अ० २ रक्तपित्त में चिकित्साका विचार | शांत शांतं पुनः कुप्यन्मार्गान्मार्गान्तरं च यत् अतिप्रवृत्तं मंदाग्नेस्त्रिदोषं द्विपथं त्यजेत् अर्थ-रक्तपित्त चाहै ऊर्ध्वगामी हो चाहे अधोगामी हो, चाहे एक दोषानुगामी हो, जो अत्यन्त शांत हो होकर फिर कुपित होजाता है वह असाध्य होने के कारण त्याज्य है | और जो रक्तपित्त एक मार्ग को छोड़कर दूसरे मार्ग में प्रवृत्त होजाता है अर्थात ऊर्ध्वगामी अधोमार्ग में प्रवृत्त होता है, और अवोमार्गगामी ऊर्ध्वगमन करता हो तो भी असाध्य होता है । जो रक्तपित्त अधोमार्गसे अथवा ऊर्ध्वमार्ग से अत्यन्त प्रवृत्त होता है वह भी त्याज्य है, क्योंकि रक्त प्राणों का आधार है, कहा भी है जीवितं प्राणिनां तत्र रक्ते तिष्ठति तिष्ठतीति मंदाग्निवाले का अधोगामी वा ऊर्ध्वगामी रक्तपित्त भी असाध्य होता है, क्योंकि इसमें चिकिसा विपरीत होती है अर्थात् मंदाग्निवाले की अग्नि को बढाने के लिये कटु, अम्ल, उष्ण और तीक्ष्ण औषधे हित हैं और रक्तपित्त की शांति के लिये जो किया कुछ जाता है वह इसके विपरीत होता है । त्रिदोषज रक्तपित्त भी चाहे ऊर्ध्वगामी हो चाहे अधोगामी, असाध्य होता है क्योंकि न तो उस में वमन दे सकते हैं न विरेचन । एकही समय में द्विमार्गगामी रक्तपित्त जो ऊर्ध्वगामी भी हो और अधोगामी भी हो वह भी त्याज्य होता. है क्योंकि कोई प्रतिलोम औषध ही नहीं हैं । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ४७५ ) रक्तपित्तज विरेचनादि । संतर्पणोत्थं बलिनो बहुदोषस्य साधयेत् ॥ ऊर्ध्वभागं विरेकेण वमनेन त्वधोगतम् । शमनैर्गृहणैश्चान्यल्लभ्यवृंह्यानवेक्ष्य च ॥ ४ ॥ अर्थ- बलवान् और वातादि दोषों की अधिकतासे आक्रांत मनुष्य के संतर्पण से उत्पन्न हुए ऊर्ध्वगामी रक्तपित्त में विरेचन और अधोगामी रक्तपित्तमें वमन दैना चाहिये तथा दुर्बल अल्पदोषाक्रांत रोगी के लंघन से उत्पन्न हुए ऊर्ध्वगामी रक्तपित्त में शमन द्वारा और अधोगामी रक्तपित्त में बृंहणद्वारा चिकित्सा करे | किन्तु शमन वा बृंहणद्वारा चिकित्सा करने के समय इस बातपर विशेष ध्यान रखना चाहिये कि रोगी लंघन योग्य है वा बृंहणयोग्य है, क्योंकि लंघन से उत्पन्न हुए अधोगामी रक्तपित्तमें भी शमनद्वारा तथा बृंहण से उत्पन्न ऊर्ध्वगामी रक्तपित्त में भी लंघन द्वारा चिकित्सा की जाती है । ऊर्ध्वगामी रक्तपित्त में रसादि । ऊर्ध्वं प्रवृत्ते शमनौ रसौ तिक कषायकौ । उपवासश्च निःशुठी डंगोदकपायिनः ॥ ५ ॥ अर्थ - ऊर्ध्वगामी रक्तपित्त में शमन करने वाले तिक्त और कषाय रस, उपवास और सोंठ रहित षडंग पानी देना चाहिये । अधोगामी में वृंहण | अधोगे रक्तपित्ते तु बृंहणो मधुरो रसः । अर्थ-अधोगामी रक्तपित्तमें बृंहणकारक मधुररसका प्रयोग करे । ऊर्ध्वगामी में तर्पणादि । ऊर्ध्वगे तर्पण योज्यंप्राक् च पेयात्वधोगते।६। अर्थ - ऊर्ध्वगामी रक्तपित्तमें प्रथम तर्पण और अधोगामी में पेया देवे । For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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