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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निदानस्थान भाषाटीकासमेत । (३७७) - मद्यसे त्रिवर्ग का नाश ! तथा विश्रब्ध* और क्रुद्ध मनुष्यको मद्यपान अयुक्तियुक्तमन्नंहि व्याधये मरणाय वा १० से अधिक नशा आता है । अत्यन्त. अम्ल, मद्यं त्रिवर्गधीधैर्यलज्जादेरपि नाशनम् । अत्यन्त रूक्ष. अधिक मद्य अथवा अजीर्ण ___ अर्थ-अन्न जो प्राणपोशक होता है, में मद्यपान वहुत नशा लाता है वह अयुक्तिपूर्वक सेवन किया जाय तो चारप्रकार के मदात्यय । ब्याधि पैदा करता है वा मारडालता है घातात्पित्तात्कफात्सर्वेश्चत्वारस्युर्मदात्ययाः इसी तरह युक्तिरहित सेवन किया हुआ सर्वऽपि सर्वैर्जायतेव्यपदेशस्तु भूयसा १४ मद्य त्रिवर्ग ( धर्म अर्थ काम ) बुद्धि, धैर्य अर्थ-मदात्यय चार प्रकारके होते हैं। और लज्जा इन सबका नाश करदेता है । यथा, वातिक, पैत्तिक, श्लैष्मिक और सान्नि मद्य का पेयत्व । पातिक । न्यूनाधिक सब प्रकारके मद त्रिदोष नातिमाद्यति बलिनः कृताहारा महाशनाः ॥ से होते हैं । पर जिस देोष की अधिकता हो स्निग्धाः सत्ववयोयुक्ता मद्यनित्यास्तदन्वयाः ती है वह उसी नामसे बोला जाता है,जैमेदः कफाधिका मन्दवातपित्ता दृढाग्नयः॥ से यह वातिकमदात्यय है । यह पैतिक म. अर्थ-जो मनुष्य बलवान्, कृताहार (भो दात्यय है, इत्यादि । जन किया हुआ), वहुभोजी, स्निग्ध, सत्व मदात्यय के सामान्य लक्षण । गुणयुक्त, युवा, नित्य मद्यसेवी, मद्यपकुलप्र- सामान्य लक्षणं तेषां प्रमोहो हृदयव्यथाः । सूत, ( जिसने शरावीके घर जन्म लिया विड्भेदः प्रततं तृष्णा सौम्याग्नेयोहो ), मेदोऽधिक, कफाधिक, मंद वातपित्त ज्वरोऽरुचिः ॥१५॥ शिरः पा स्थिहृत्कम्पो मर्मभेदस्त्रिकग्रहः। वाला होता है, उसको बहुत मद्य पीनेसे भी उरोविबन्धस्तिमिरं कासः श्वासः प्रजागरः नशा नहीं आता है। स्वेदोऽतिमात्र विष्टंभःश्वयथुश्चित्तविभ्रमम उक्तलक्षणोंसे विपरीतकाफल । | प्रलापछर्दिरुत्क्लेशो भ्रमो दुःस्वप्नदर्शनम् । विपर्ययेऽतिमाद्यति विश्रब्धाः कुपिताश्च ये| अर्थ-मोह, हृदयवेदना, पुरीषभेद, निमधेन चाम्लरूक्षेण साजीणे बहुनाति च ॥ अर्थ-ऊपर कहेहुए लक्षणों से विपरीत रंतर तृषा, कफ पित्तजज्वर, अरुचि, शिरःलक्षणवाला मनुष्य अर्थात् बलहीन, अकृ. कंप, पार्श्वकंप, अस्थिकंप, हृदयकंप, मर्मताहार, अल्पभोजी आदि लक्षणोंसे यक्त, ) | भेद, त्रिकग्रह ( त्रिक स्थानमें स्तब्धता ) | वक्षःस्थल में बिबंधता, तिमिर, खांसी, वोधिते । मध्यमो विहतेऽल्पे तु विहते तृत्त श्वास, निद्रा न आना, पसीना, अत्यंत मो मदः अर्थात् मदकी जिस अवस्थामै ओजका नाश न होकर हृदयमें प्रबुद्धता वनी विष्टंभता, सूजन, चित्त विभ्रम, प्रलाप, रहे वह प्रथम मद होता है । जिसमें ओजो +विश्रब्ध वह मनुष्य कहलाता है जो पदार्थका अल्प नाश होजाता है वह मध्यम | यह कहता है कि मद्य अमृतके समान स्पृ. मद है और जिसमें सर्वथा नाश होजाता है | हणीय और देवताओं को भी निवेदन करना वह उत्तम अर्थात् तृतीय मद है। | उचित है, और उसीमें लयलीम होजाता है ४८ For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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