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अष्टांगहृदय ।
पुटपाक विधि | प्रसादनं स्नेहनं च पुटपाकं प्रयोजयेत् ६१ अर्थ - तर्पण और पुटपाक के विधान में कहा हुआ प्रसादन और स्नेहन पुटपाक का प्रयोग करना चाहिये ।
वातजातिमिर में अनुवासनादि । वातपनिसवच्चात्र निरूहं सानुवासनम् । अर्थ - - वातजतिमिर रोगमें पनिस की तरह निरूहण और अनुवासन का प्रयोग करना चाहिये ।
पैत्तजतिमिर की चिकित्सा | पित्तजे तिमिरे सर्पिर्जीवनीयफलत्रयैः ६२
उक्त रोग में विरेचन । शर्करैला त्रिवृच्चूर्ण मधुयुक्तैर्विरेचयेत् ६३ ॥ अर्थ - शर्करा, इलायची, निसोध और शहत इन सब द्रव्यों को देकर रोगी को विरेचन करावे ।
नेत्ररोग में परिषेकादि । सुशीतान् सेकलेपादीन गुंज्यान्नेत्रास्यमृर्धसु अर्थ - पैत्तिक तिमिररोग में नेत्र, मुख और मस्तक में शीतल परिषेक और प्रलेपादि का प्रयोग करना चाहिये । सारिवादि वर्ती । सारिवापद्मकोशीरमुक्ताशावर चंदनैः ६४ वार्तिः शस्तांजने चूर्णस्तथा पत्रोत्पलांजनैः । सनागपुष्पकर्पूरयष्टयाह्नस्वर्णगैरिकैः ६ ६५
अर्थ - सारिवा, पद्माख, खस, मोती,
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अ० १३
लोध और चंदन इनकी बत्ती तथा तेजपात सौवीरांजन, नागकेसर, कपूर, मुलहटी और स्वर्णगैरिक इन सब द्रव्यों से बनाई हुई वत्ती का मंजन लगाना तिमिर रोग में उत्तम है ।
अन्य अंजन | सौवीरांजनतुत्थकशृंगी धात्री फल स्फटिक -
कर्पूरम् पंचांशं पंचाशत्र्य शमथैकांश मंजनं तिमिरघ्नम् अर्थ- सौवीरांजन पांच भाग, नीलाथोथा पांच भाग, काकडासींगी और आमला प्रत्येक तीन भाग, स्फटिक और कपूर विपाचितंपाययित्वास्निग्धस्यव्यधयेत्सिराम् प्रत्येक एक भाग, यह अंजन तिमिर अर्थ-पित्तज तिमिररोग में जीवनीय गण और त्रिफला के साथ घी को पकाकर यह घी रोगी को पान करावे । घृतपान द्वारा स्निग्ध होने पर रोगी की फस्द खोलना चाहिये ।
नाशक है ।
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पक्व घृत की नस्य । नस्य चाज्यं शृतं श्रीरजीवनीयसितेात्पलैः अर्थ - जीवनीयादि गण में चौगुने दूध के साथ पकाया हुआ घी नस्य द्वारा प्रयोग करने से तिमिररोग जाता रहता है ।
कफज तिमिर की चिकित्सा | श्लेष्मोद्भवेऽमृताक्वाथवराकणशतं घृतम् । विध्येत्सिरां पीतवतो दद्याच्चानु विरेचनम् । क्वाथं पूगाभयाशुंठी कृष्णाकुंभनिकुंभजम्
अर्थ - कफज तिमिररोग में गिलोय का काढा, त्रिफला और पीपल के काढ़े में पकाया हुआ घी पान करावे । पान कराने के पीछे फस्द खोले । पीछे विरेचन के लिये सुपारी, हरड, सोंठ, पीपल, निसोध और दंती के काढ़े का प्रयोग करे । तेल की नस्य ।
दारुद्विनिशाकृष्णा कल्कैः पयोन्वितैः । द्विपचमूलानिर्यूहे तैलं पक्वं च नाघनम् ६९