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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ( ७९४ ) www.kobatirth.org अष्टांगहृदय । पुटपाक विधि | प्रसादनं स्नेहनं च पुटपाकं प्रयोजयेत् ६१ अर्थ - तर्पण और पुटपाक के विधान में कहा हुआ प्रसादन और स्नेहन पुटपाक का प्रयोग करना चाहिये । वातजातिमिर में अनुवासनादि । वातपनिसवच्चात्र निरूहं सानुवासनम् । अर्थ - - वातजतिमिर रोगमें पनिस की तरह निरूहण और अनुवासन का प्रयोग करना चाहिये । पैत्तजतिमिर की चिकित्सा | पित्तजे तिमिरे सर्पिर्जीवनीयफलत्रयैः ६२ उक्त रोग में विरेचन । शर्करैला त्रिवृच्चूर्ण मधुयुक्तैर्विरेचयेत् ६३ ॥ अर्थ - शर्करा, इलायची, निसोध और शहत इन सब द्रव्यों को देकर रोगी को विरेचन करावे । नेत्ररोग में परिषेकादि । सुशीतान् सेकलेपादीन गुंज्यान्नेत्रास्यमृर्धसु अर्थ - पैत्तिक तिमिररोग में नेत्र, मुख और मस्तक में शीतल परिषेक और प्रलेपादि का प्रयोग करना चाहिये । सारिवादि वर्ती । सारिवापद्मकोशीरमुक्ताशावर चंदनैः ६४ वार्तिः शस्तांजने चूर्णस्तथा पत्रोत्पलांजनैः । सनागपुष्पकर्पूरयष्टयाह्नस्वर्णगैरिकैः ६ ६५ अर्थ - सारिवा, पद्माख, खस, मोती, Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० १३ लोध और चंदन इनकी बत्ती तथा तेजपात सौवीरांजन, नागकेसर, कपूर, मुलहटी और स्वर्णगैरिक इन सब द्रव्यों से बनाई हुई वत्ती का मंजन लगाना तिमिर रोग में उत्तम है । अन्य अंजन | सौवीरांजनतुत्थकशृंगी धात्री फल स्फटिक - कर्पूरम् पंचांशं पंचाशत्र्य शमथैकांश मंजनं तिमिरघ्नम् अर्थ- सौवीरांजन पांच भाग, नीलाथोथा पांच भाग, काकडासींगी और आमला प्रत्येक तीन भाग, स्फटिक और कपूर विपाचितंपाययित्वास्निग्धस्यव्यधयेत्सिराम् प्रत्येक एक भाग, यह अंजन तिमिर अर्थ-पित्तज तिमिररोग में जीवनीय गण और त्रिफला के साथ घी को पकाकर यह घी रोगी को पान करावे । घृतपान द्वारा स्निग्ध होने पर रोगी की फस्द खोलना चाहिये । नाशक है । For Private And Personal Use Only पक्व घृत की नस्य । नस्य चाज्यं शृतं श्रीरजीवनीयसितेात्पलैः अर्थ - जीवनीयादि गण में चौगुने दूध के साथ पकाया हुआ घी नस्य द्वारा प्रयोग करने से तिमिररोग जाता रहता है । कफज तिमिर की चिकित्सा | श्लेष्मोद्भवेऽमृताक्वाथवराकणशतं घृतम् । विध्येत्सिरां पीतवतो दद्याच्चानु विरेचनम् । क्वाथं पूगाभयाशुंठी कृष्णाकुंभनिकुंभजम् अर्थ - कफज तिमिररोग में गिलोय का काढा, त्रिफला और पीपल के काढ़े में पकाया हुआ घी पान करावे । पान कराने के पीछे फस्द खोले । पीछे विरेचन के लिये सुपारी, हरड, सोंठ, पीपल, निसोध और दंती के काढ़े का प्रयोग करे । तेल की नस्य । दारुद्विनिशाकृष्णा कल्कैः पयोन्वितैः । द्विपचमूलानिर्यूहे तैलं पक्वं च नाघनम् ६९
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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