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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ.१ चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत । [५०१॥ वृहणं दीपनं चाग्नेः स्रोतसां च विशोधनम् | श्वास और हिध्माकी समानता ॥ व्यत्यासात्क्षयकासिभ्यो बल्यं सर्व प्रशस्यते | " श्वासहिमा यतस्तुल्यहेत्वाद्याः अर्थ-क्षयकासमें जो अनुपान सहित साधनं ततः ॥१॥ धूमपान वर्णन किये गये हैं, वेही क्षयकास में दिये जाते हैं तथा आगे जो यक्ष्मारोगमें अर्थ-श्वास और हिचकी के उत्पन्न वर्णन किये जायगे उसका भी देना हितहै।। होनेके हेतु, पूर्वरूप, संख्या, प्रकृति,और अतथा वृंहण, अग्निसंदीपन और स्रोतोंके धिष्ठान सब समान है, इसलिये इनकी चिशोधनकर्ता द्रब्य देने चाहिये । तथा हेतु कित्सा भी समान हैं। और व्याधिके विपरीत जो बलकारक औ ३वास और हिचकी में स्वेदन ॥ तदात च पूर्व स्वेदैरुपाचरेत् । षध और आहार विहारादि हैं वे भी सव स्निग्धैर्लवणतैलाक्तं तैः खेषु ग्रथितः कफाः॥ उपयोग में लाने चाहिये । सुलीनोऽपि विलीनोऽस्य कोष्ठम् प्रातःसानिपातिक कास। सुनिहरः। सन्निपातोद्भवो घोरः क्षयकासो यतस्ततःस्रोतसांस्यान्मृदुत्वं च मारुतस्यानुलोमता यथा दोषबलं तस्य सन्निपाताहतं हितम"। अर्थ-श्वास और हिचकी के रोगों में ___ अर्थ-सन्निपात से उत्पन्न हुई क्षयकी | सब उपचारों से पहिले स्वेदन क्रिया करनी खांसी वडी भयंकर होती है, इसलिये दोष चाहिये । इसमें लबणादिमिश्रित तेल द्वारा के बल का विचार करके वे वे दबा देना , स्निग्ध स्वेदन दिया जाता है, क्योंकि रूक्ष. चाहिये जो सन्निपात में हितकर होती हैं । स्वेदन देने से वातके कोपका भय रहताहै, इतिश्री अष्टांगहृदय संहितायां भाषा | इस स्निग्ध स्वेदन क्रिया से स्त्रोतोमें व्हिसा टीकान्वितायां चिकित्सितस्थाने हुआ कफ अलग होकर रोगी के कोष्ट में कासचिकित्सितं नाम तृतीयो चला जाता है, वहां से सुखपूर्बक वाहर ऽध्यायः ॥ निकाल दिया जासकता है । ऐसाकरने से सब स्रोत मृदु और वायुका अनुलोमन होताहै चतुर्थोऽध्यायः। स्वेदनके पीछे आहारादि । . स्विन्नम् च भोजयदन्नं स्निग्धमानूपजै रसैः। दध्युत्तरेण वा दद्यात्ततोऽस्मैवमनं मृदु ४॥ अथाऽतः श्वासहिमाचिकित्सितं विशेषात्कासवमथुहृद्गृहस्वरसादिने। व्याख्यास्यामः।। पिप्पलीसैंधवक्षौद्रयुक्तम् वाताविरोधि यत् अर्थ-अव हम यहां से श्वास और हि. । अर्थ-स्वेदनकर्म के पीछे आनूप जीवों मा चिकित्सित नामक अध्यायकी व्याख्या | के मांसरसके साथ स्निग्ध शाल्यादि अन्नका करेंगे। भोजन करावे । अथवा स्वेदन के पीछे दही For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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