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(२९६)
- अष्टांगहृदय।
अ०३
अर्थ-भोज्य धातुओं का परिवर्तन अ- | त होती रहती है, यदि स्रोतों में किसी र्थात भ्रमण गाढी के पहिये की तरह धूमता प्रकार की विगुणता होने से शरीर के ही रहता है । पहिली वाली, जिस धातु से जिस अवयव वा स्थान में वह रुक जाती जो दूसरी धातु वनती है तो वह पहिली है वहां ही रोग उत्पन्न हो जाती है, जैसे बाला धातु दूसरी घातु की भोज्य धातु | बायु की प्रेरणा से आकाशस्थ मेघ महां अर्थात् आहार होती है, जैसे रस से रक्त इकट्ठे हो जाते हैं वहीं वरसते हैं । सब बनता है तो रस धातु रक्त की भोज्य जगह नहीं बरसते । इसी तरह रस भी धातु हैं, इसी तरह मासकी भोज्य धातु रक्त अपने रुकने के स्थानमें ही रोग को उत्पन्न है, मेदकी भोज्य धातु मांस है, अस्थि की करता है । भोज्य धातु मेद है, मज्जा की भोज्य धातु __ दोषोंका भी एक देशमें प्रकोपन । अस्थि है और शुक्र की भोज्य धातु मज्जा | दोषाणामपि चैवं स्यादेकदेशप्रकोपणम् । है। भोज्यधातु निरंतर आप्यायित रहने के अन्नभौतिकधात्वाग्निकर्मति परिभाषितम् ॥ कारण क्षीण नहीं होती है।
___ अर्थ- जैसे रस धातु अपनी विगुणता वृष्य पदाथाको सद्यःवीर्योत्पादकता ।
से जहां रुकती है वहीं रोग उत्पन्न करती वृष्यादीनि प्रभावेण सद्यःशुमादि कुर्वते ।
है वैसेही वातादि दोष भी व्यानवायु से अर्थ-दूध मांसरस, मुलहटी, उरद, विक्षिप्त होकर स्रोतो दुष्टि के कारण जहां कूष्मांड, हंसादि पक्षियों के अंडे तत्काल शु- रुक जाते हैं वहीं विकार उत्पन्न करते हैं, क को उत्पन्न करते हैं।
यही कारण है कि सिध्म, श्ययथु आदि . अहोरात्र में स्वकर्मकर्तव्य । | रोग एक ही स्थान में होते हैं। प्राय:करोत्यहोरात्रात्कर्मान्यदपि भेषजम् ॥ अन्नाग्नि कर्म, भौतिकाग्नि कर्म, और - अर्थ वृष्यादि द्रव्यों के अतिरिक्त और | धात्वग्नि कर्म ये पहिले ही कहेजा चुके भी चूर्ण गुटका आदि संदीपन औषध | है, अब अन्नाग्नि की श्रेष्ठता प्रतिपादन अपना अपना कर्म एक दिन रात में | करते हैं। करती हैं।
जठराग्नि के पालनादि कर्म । जठराग्निद्वारा आहारकी प्रेरणा। | अन्नस्य पक्ता सर्वेषां पक्तणामधिको मतः। म्यानेनरसधातुर्हि विक्षेपोचितकर्मणा। तन्मूलास्ते हि तद्वद्धिक्षयवृद्धिक्षयात्मकाः ॥ युगपसर्वतोऽजलं देहे विक्षिप्यते सदा ॥ | तस्मात्तं विधिवद्युक्तरन्नपानधनैर्हितः । क्षिप्यमाणःस्ववैगुण्यासःसज्जति यत्र सः। पालयेत्प्रयतस्तस्यस्थितौ ह्यायुर्बलस्थितिः। तस्मिन्विकारं कुरुते खे वर्षमिव तोयदः ॥ अर्थ-सब प्रकार की आग्नियों में अन्न
अर्थ-व्यानवायु से विक्षिप्यमाण रस | को पचानेवाली पाचकाग्नि अर्थात् धातु संपूर्ण शरीर में सदा चारों ओर प्रेरि- | जठराग्नि श्रेष्ठ होती है, क्योंकि पाचकाग्नि
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