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(२१०)
अष्टांगहृदये।
वस्त्र, पत्थर, मोगरी, रेशम, आंत, जिह्वा, षडूविंशोऽध्यायः। वाल, शाखा, नख, मुख, दांत, काल, पाक, हाथ, पांव, भय, और हर्ष ये १९ प्रकार के अनुयंत्र हैं। निपुण वैद्य अपनी बुद्धिसे विवे
| अथाऽतःशस्त्रविधिमभ्यायं व्याख्यास्यामः। चना करके इनसे भी काम ले सकता है।
___ अर्थ-अब हम यहांसे शस्त्र विधिनामक यंत्रोंके कर्म ।
अध्याय की व्याख्या करेंगे। निर्धातनोन्मथन पूरणमार्ग शुद्धि
शस्त्रों का वर्णन । संव्यूहनाहरण बंधन पीडनानि ।
"षड्विंशतिःसुकौरैर्घटितानि यथाविधि आचूषणोन मननामनचाल भंग
शस्त्राणि रोमवाहीनि बाहुल्येनांगुलानिषद् व्यावर्तन र्जुकरणानि च यंत्रकर्म॥४१॥
सुरूपाणि सुधाराणि सुग्रहाणि च कारयेत् । अर्थ-निर्धातन ( ताडना और परिपा
अकरालानिसुध्मातसुतीक्ष्णावर्तितेऽयसि॥ तन ), उन्मथन [ उखाडना ], पूरण, मार्ग- समाहितमुखाग्राणि नीलांभोजच्छवीनि च शोधन, संव्यूहन [ निकालना ] आहरण, ब
नामानुगतरूपाणि सदा सन्निहितानि च ॥ न्धन, पीडन, आचूषण'उन्नमन [उठाना],
स्वोन्मानार्धचतुर्थाशफलान्येकैकशोऽपि च
| प्रायो द्वित्राणि युजीत तानि स्थानविशेषतः॥ नामन, चालन, भंग, व्यावर्तन और ऋजुक
। अर्थ-शस्त्र बहुतायत से छः अंगुल रण [ सीधा करना ] ये यंत्रों के कर्म हैं।
लंबे होते हैं तथा बीस प्रकार के होते है । कंकमुखयंत्रोंको प्रधानता।
ये शस्त्र बहुत निपुण कारीगर से बनवाये निवर्तते साध्ववगाहते च
जाते हैं, ये बहुत सूक्ष्म, पैने और ऐसे ग्राह्यां गृहीत्वाद्धरते च यस्मात् ।। यंत्रवतःकंकमुखं प्रधान ।
वनबाने चाहियें जो लगाने वा निकालने में स्थानेषु सर्वेष्वधिकारि यच्च ॥ ४२ ॥ टूट न जावें । इनकी सूरत बहुत सुन्दर,
अर्थ-कंकमुखयंत्र सुखपूर्वक निर्वर्तित धार पैनी, रोगों के दूर करने में समर्थ होता है, शरीरमें प्रवेश कर जाता है । ग्रह- | अकराल.( भयंकर नहो ), सुग्रह ( सुखणयोग्य सल्यादि को खींचकर निकाल लाता | पूर्वक पकडीजाय ), हो तथा शस्त्र का मुख है, तथा शरीरके सब अवयवों में उपयोगी बहुत ही सावधानी से बनाया जाय । होता है। ऐसे निवर्तनादि चौदह कारणों से | सब शस्त्र नील कमल की कान्ति के समान कंकमुखयंत्र सब यंत्रों में श्रेष्ठ है।
चमकीले और नामानुसार आकृतिवाले हों,
इनको सदा पास रक्खे, शस्त्रों के फल कुल इतिश्रीमष्टांगहृदये भाषाटीकायां
लंबाई से अष्टभाग होने चाहियें । इन श. पंचविंशोध्यायः।
स्त्रों में से स्थाव बिशेष में एक एक करके | दो बा तीन भी उपयोग में आते हैं |
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