SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 619
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (५२२) अष्टांगहृदय। वन करै । इससे हृद्रोग से उत्पन्न हुई तृषा | रोहण, बलकारक और वातज हृदयके रोग शांत होजाती है। | को दूर करनेवाला है। वातज हृद्रोगमें चिकित्सा । दीप्ताग्नि दृद्रोग में कर्तव्य ! सायामस्तंभशूलामे हदि मारुतदूषिते ॥ दीप्तेऽग्नौ सद्रवायामे हृद्रोगे वातिके हितम्। क्रियैषा सद्रवायामप्रमोहे तुहिता रसाः। क्षीरं दधिगुडः सपिरौदकानूपमामिषम् ।। स्नेहाद्यास्तित्तिरिक्रौंचशिखिवर्तक- अर्थ-वातज हृदयरोग में यदि जठराग्नि क्षजाः॥ | प्रबल हो तथा द्रवता और आयाम होतो अर्थ -वातज हृद्रोग में आक्षेप, स्तंभ, दूध, दही, घी, गुड, औदक ( मछली शूल और आमदोष हो; तो ऊपर कहीहुई आदि ) का मांस और आनूप अर्थात् शूकचिकित्सा करनी चाहिये तथा वातज ह. रादि का मांस हित है। द्रोग में द्रवता, आयाम और प्रमोह हो तो हृद्रोग में वर्जित द्रव्य । तीतर, कुंज, मोर, बतक और रीछ इनका एतान्येव च वया॑नि हृद्रोगेषु चतुर्वपि। मांसरस बहुत स्नेह से युक्त हित होताहै। शेषेषु स्तंभजाड्यामसंयुक्तेऽपि च वातिके।। हृद्रोग में अन्य तेल । अर्थ-शेष चारों प्रकार के हृदयरोगों बलातैलं समृद्रोगः पितेद्वा सुकुमारकम् ॥ में दूध, दही, घी, गुड, मछली और शुकर यष्ठयाहवशतपाकं वा महास्नेहं तथोत्तमम् का मांस वर्जित है तथा स्तंभता, जडता अर्थ-हृदयरोगी मनुष्य बला तेल का , और आमसंयुक्त वातज हृद्रोग में भी ये पान करे । अथवा प्रमेह में कहा हुआ | वस्त वर्जित है। सुकुमारघृत, वातरक्त में. कहाः हुआ यष्टा कफानुबंधी हृदयरोग में कर्तव्य । ह्वशतपाक घृत अथवा महास्नेह नामक घृत कफानुबंधे तस्मिंस्तुरूक्षौष्णामाचरेत्क्रियाम् का सेवन करे । ___ अर्थ-कफानुबंधी वातज हृदयरोग में महास्नेह घृत। | रूक्ष और उष्ण क्रिया करनी चाहिये । रास्नाविकजीवंतीबलाव्याघ्रीपुनर्नवैः।। पैत्तिक हृद्रोग । भार्गीस्थिरावचाग्योषैर्महास्नेहं विपाचयेत्॥ | पैत्ते द्राक्षानिर्याससिताक्षौद्रपरूषकैः ॥ दधिपादतथाम्लैश्च लाभतःस निषेवितः । युक्तौ बिरेको हृद्यास्यात्क्रमः शुद्ध च पित्तहा तर्पणोहणो बल्यो वातहृद्रोगनाशनः ३९॥ क्षतपित्तज्वराक्तं च वाह्यांतःपरिमार्जनम् ॥ अर्थ-रास्ना, जीवक, जीवती, बला, कवीमधुककल्क च पिबेत्ससितमभसा । - कटेरी, सोंठ, भाडंगी, शालपर्णी, बच और अर्थ-पैत्तिक हृद्रोग में दाख और ईख त्रिकुटा इनके साथ घृतको पकावै, जितना का रस, मिश्री, शहत, फालसा इनके द्वारा घृत पकाना हो उससे चौथाई दही और हृदयको हितकारी विरेचन देना चाहिये । थोडी सी कांजी डालकर यह महास्नेह ना- जब विरेचन से रोगी शुद्ध होजाय तब मक घृत पकाया जाता है, यह घृत तर्पण । पित्तनाशक क्रमकी व्यवस्था करनी चाहिये For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy