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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भ. २६ उत्तरस्थान भाषाकासमेत । (८७७) तत्प्रमाणेन जठर पाटयित्वा प्रवेशयेत् । । बुरक कर डोरे से दृढ बांध देवै और अग्नि यथास्थानं स्थिते सम्यगंत्रे सीव्येदनुवणम् | से तप्त तीक्ष्ण शस्त्रसे कुशल वैद्य शीघ्र स्थानादपेतमादत्ते जीवितं कुपितं च तत् ।। वेष्टयित्वानुपट्टेन घतेन परिषेचयेत् ॥४८॥ वर्धन करे । इसका अन्यथा छेदन होने से पाययेत्तं ततः कोष्णं चित्रातैलयुतं पयः । वेदना, आटोप और मृत्यु भी हो जाती है। मृदुक्रियार्थ शकृतो वायोश्चाधः प्रवृत्तये । छेदन के पीछे मधु लगाकर व्रणको बांध देवै अनुवर्तेत वर्षे च यथोक्तां ब्रणयंत्रणाम् । और अन्नके पच जाने पर घी पान कराव __अर्थ-घाव का मुख छोटा होने के कारण और आंतों की आधिकता के कारण यदि अथवा शर्करा, चीता, लाख, गोखरू और निकली हुई भांतें उदर में न घुस सकें तो मुलहटी डालकर सिद्ध किया हुआ दूध पान उनके प्रमाण के अनुसार उदर को चीर करावै । इससे वेदना और दाह शांत हो कर आंतों को भीतर करदे, इस तरह यथा जाते हैं । तदनंतर पूर्वोक्त संपूर्ण चिकित्सा स्थान में स्थापित करके व्रग के मुख को | करना चाहिये इसमें मेद और ग्रंथि चिकित्सा मिलाकर टांके भरदे, स्थान भ्रष्ट आंत कुपित | में कहे हुए तेल अभ्यंजन में हित हैं । होकर शीघही प्राणी को मार डालती है। घावमें रोपण तैल। इस लिये इसपर पट्टी लपेट कर घी डालदे, | तालीसं पद्मकं मांसीहरेण्वगुरुचंदनम् । | हरिद्रे पद्मयीजानि सोशीरं मधुकं च तैः । तदनंतर चित्रा का तेल मिलाकर कुछ गरम । पक्कं सद्योव्रणषूक्तं तैलं रोपणमुत्तमम् । दूध पान करावे, मल को ढीला करने के ___ अर्थ-तालीसपत्र, पदमाख, जटामांसी, लिये और अधोवायु के प्रवृत करने के लिये हरेणु, अगर, चंदन, हलदी, दारुहलदी, कमएक वर्ष तक व्रण के हितकारी यथोक्त । नियमों का सावधानी से प्रतिपालन करे । लगवा, खस, और मुलहटी इनसे पकाया मेदोवर्तिके निकलने में कर्तव्य ।। हुआ तेल ताजी घावोंके भरनमें परमोत्तम हैं उदराम्मेदसो वति निर्गतां भस्मना मृदा । गूढ प्रहारमें कर्तव्य ।। अवकीर्य कषायैर्वा श्लक्ष्णैर्मलैस्ततः समम | गूढप्रहाराभिहते पतिते विषमोश्चकैः ५६ दृढं बध्वा च सूत्रेण वर्धयेत्कुशलो भिषक कार्यवातास्रजित्तन्तिमर्दनाभ्यंजनादिकम् तीक्ष्णेनाग्निप्रतप्तेन शस्त्रेण सकृदेव तु। । अर्थ-लाठी वा चूंसे से भीतरी चोट स्यादन्यथा रुगाटोपो मृत्यु छिद्यमानया | लगने के कारण अथवा विषम रीति से गि. सक्षौद्रे च ब्रणे बद्धे सुजीर्णेऽन्ने घृतं पियेत् | क्षीरं वा शर्कराचित्रालाक्षागोक्षुरकैः शृतम् रने के कारण वा ऊंचे स्थान से गिरने के रुग्दाहजित्सयष्टयाहः परं पूर्वोदितो विधि: कारण पेट भरकर भोजन, मर्दन, और वात. मेदोग्रंथ्युदितं तत्र तैलमभ्यंजने हितम् । नाशक अभ्यंजनादि का प्रयोग करना चाहिये अर्थ-उदर से मेदकी बत्ती बाहर निका- तेलकी द्रोणीमें निवास । लने पर भस्म अथवा मृत्तिकाद्वारा अथवा विश्लिष्टदेहं माथतं क्षीणं मर्महताहतम् । कषायरसान्वित किसी जडके महीन चूर्णको | यासयेत्तैलपूर्णायां द्रोण्यां मांसरसाशिनम् For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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