SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 973
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अष्टांगहृदय । अ० २६ विरेचनं निरूहं च निःस्नेहोष्णविंशोधनैः ।। अर्थ-कोष्ठ के भिन्न होने पर भी यदि अर्थ-रक्तके आमाशय में स्थित होने | रोगी के मल मुत्र और अधोषायु अपने २ पर वमन, पक्काशयमें स्थित होनेपर विरेचन, मार्ग द्वारा प्रवत होते हों और कोई हितकारी होते हैं तथा स्नेहरहित उष्णवीर्य उपद्रव भी न हो तो भिन्न कोप्ठवाला रोगी विशोधन द्वारा निरूहण का प्रयोग हित. निःसंदेह जी पड़ता है। कारी है। अंत्र प्रवेश में मत । अन्यविधि । अभिन्नमंत्रं निष्क्रांतं प्रवेश्यं न त्वतोऽन्यथा वकोलकुलत्थानां रसैः स्नेहविवर्जितैः। उत्पंगिलशिरोग्रस्तं तदप्येके वदंति तु ४३ भुजीतानं यवागू वा पिवेत्सैंधवसंयुताम् । अर्थ-जो आंत बिना भिन्न हुएही बाहर अर्थ-बिना चिकनाई डाले जौ, बेर निकल पडी हो तो उसे भीतर प्रविष्ट करद और कुलथी के काढे के साथ अन्न भोजन और यदि कटकर बाहर निकली हो तो अथवा सेंधेनमक के साथ पेया देना हितहै। काली चींटियों के मस्तक द्वारा जुड़वाकर रक्तपानविधि । भीतर प्रवेश करदे । भतिनिःसतरक्तस्तु भिन्नकोष्ठः पिवेदसृक । ___ अर्थ-जिसका रुधिर बहुत निकल गया अंत्र के भीतर प्रवेश करने की विधि । है और कोष्ठ फटगया है उसको रुधिरपान प्रक्षाल्य पयसा दिग्धं तृणशोणितपांसुभिः प्रवेशयेत्क्लुप्तनखोघृतेनाक्तं शनैः शनैः ४४ कराना चाहिये । ___ अर्थ-वाहर निकली हुई आंत के तिनुके . कोष्ठ भेदन में दो विधि । | रुधिर वा धूल को धोकर और उसपर घी क्लिन्नभिन्नांत्रभेदेन कोष्ठभेदो द्विधा स्मृतः । चुपड़ कर धीरे २ भीतर करदे । वैद्य को मूदियोऽल्पाःप्रथमे द्वितीये त्वतिबाधकाः क्लिनांत्रः संशयी देही भिन्नांत्रो नैव जीवति उचित्त है कि इस काम को करने से पहिले अर्थ-क्लिन्नांत्र और भिन्नांत्र भेदों से अपने नख कटवाले । कोष्ठ दो प्रकार का होता है । क्लिन्नांत्र में अंत्रव्रण सीवन । मूर्छादिक रोग बहुत कम दशा में उत्पन्न क्षीरेणार्टीकृतं शुष्कं भूरिसर्पिःपरिप्लुतम् अंगुल्या प्रमृशेत्कंठं जलेनोद्वेजयेदपि ४५ होते हैं, परन्तु भिन्नांत्र में ये लक्षण अधि- | तथांत्राणि विशत्यंतस्तत्कालं पीडयति च । कता से उत्पन्न होते है । क्लिन्नांत्र रोगी के । अर्थ-सखी हुई प्रांत को दूध से भिगो जीवन में संशय रहता है जी भी और न | कर और बहुत से घी में आप्लुत करे । भी जीवै । परन्तु भिन्नांत्र रोगी किसी प्रकार तदनंतर रोगीके कण्ठमें उँगली प्रवेश करदे नहीं जी सकता है । तथा जल के छींटे मारकर उद्वेजित करे । भिन्नकोष्ठ में जीवन के लक्षण । ऐसा करने से आंत भीतर घुस जाती है । यथावं मार्गमापन्ना यस्य विषमूत्रमारुताः अन्य उपाय । व्युपद्रवः स भिन्नेऽपि कोष्ठे जीवत्यसंशयम् | व्रणसौम्याद्वहुत्वादा कोष्टमंत्रमनाविशत् For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy