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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (४०१) अष्टांगहृदय । म. १० अर्थ-मसूरिका नामकी पिटिका आ- | अर्थ-इन पिटकाओं में से पहिली तीन कार और परिमाण में मसूर के यि | अर्थात् शराविका कच्छपिका और जालिनी होती है। तथा पुत्रिणी और विदारिका । ये पांच सर्षपा के लक्षण प्रकारकी पिटका दुःसाध्य होती हैं, क्यों. सर्षपामानसंस्थाना क्षिप्रपाका महारज ॥ कि ये बहुगेदो विशिष्ट होती है । इन सर्षपा सर्षपातुल्यपिटिकापरिवारिता। पाचों को छोडकर पित्तकी अधिकता के अर्थ-सर्षपा नामकी पिटिका परिमाण कारण उत्पन्न हुई सुसाध्य होती है क्योंऔर आकार में सरसों के बराबर होती हैं, . हाता है कि इनकी उत्पत्ति अल्प मेदा से है । ये बहुत शीघ्र पकजाती हैं, इनमें वेदनाभी इनमें वेदनाभी । प्रमेह से पिटकाओं में दोषोद्रेक । बहुत होती है । इनके चारों ओर सरसों | तासु मेहवशाच्च स्याहोषोद्रेको यथायथम् । के बराबर छोटी छोटी फुसियां पैदा हो अर्थ-इन पिटिकाओं में प्रमेह के अनुजाती हैं। सार दोषों का उद्रेक होता है, जैसे वातन पुनिणी के लक्षण । मेह में घातकी अधिकता, पित्तज मेह में पुत्रिणी महती भूरिसुसूक्ष्मपिटिकावृता ३३ | पित्तकी अधिकता, कफजमेह में कफकी अर्थ-पुत्रिणी नामकी पिटिका आकार आधिकता, और त्रिदोष में तीनों दोषों की में बडी होती हैं, इनके चारों ओर बहुतसी | अधिकता होती है। छोटी २ फुसियां होती हैं । प्रमेह के बिना पिटकाओं की उत्पत्ति । विदारिका के लक्षण । | प्रमेहेण विनाप्येता जायते दुष्टमेदसः। विदारीकंवद्वत्ता कठिना च विदारिका ।। तावश्च नोपलक्ष्यते यावद्वस्तुपरिग्रहः ३६ ॥ अर्थ-विदारीकंद वा बिधारे के समान ___अर्थ-प्रमेहरोग के विनाभी दूषित मेद गोलाकार और कठोर कुंसियों को विदारिका | से इन पिटकाओं की उत्पत्ति होजाती है, कहते हैं। किंतु जबतक इनके लक्षण यथायथ उत्पन्न विद्रधि के लक्षण । नहीं होते हैं तबतक ये पहंचानने में नहीं विद्रधिर्वक्ष्यतेऽन्यत्र आती है । अर्थ-विद्रधि के लक्षणों से युक्त पि- रक्तपित्त में हरिद्वर्ण । टकाओं को विद्रधि कहते हैं । इनके लक्षण | हारिद्रवर्ण रक्तम् वा मेहप्रायूपवर्जितम् । यो मूत्रयेन्न तं मेहं रक्तपित्तं तु तद्विदुः ३७ ॥ आगे वर्णन किये जायगे। __ अर्थ-प्रमेह और रक्तपिक्त दोनों में लाल पिठकाओं का साध्यासाध्यत्व । वा हलदी के रंगका प्रस्ताव साधारणतः तत्राद्य पिटिकात्रयम् ॥ पुत्रिणी च विदारीच दुःसहा बहुमेदसः।। | पाया जाता है फिर इन दोनों में कोंन सह्यापित्तोल्यणास्त्वन्याःसंभवत्यल्पभेदसः। प्रमेह और कोन रक्तपित्त है, इसकी परीक्षा For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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