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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir म. १२ 'उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत । (७८३) भीतर की और तीक्ष्ण अंजनों का प्रयोग अर्थ-जब दोष दूसरे पटलमें पहुंच जाकरने से दृष्टिको कुछ हानि नहीं पहुंच ता है तब रोगी बिना हुए पदार्थों को भी सकती है। । देखता है । पासवाले पदार्थ को बडे यत्न से इतिश्री अष्टांगहृदयसंहितायां भाषाटी- देख सकता है, दूरकी छोटी वस्तु दिखाई नकान्वितायां उत्तरस्थाने संधिसिता- ही देती है। दूरवाली वस्तु विपरीत भाव सितरोगप्रतिषेधो नामैका- में दिखाई देती है अर्थात् दूरवाली पास और दशोऽध्यायः ॥११॥ पासवाली दूर दिखाई देती है। दोपके मंडल में स्थित होनेपर वस्तु गोलाकार दिखाई देती द्वादशोऽध्यायः। हैं, दृष्टिके मध्यमें स्थित होनेपर एक वस्तु दो और बहुत प्रकार से स्थित होनेपर एक ही वस्तु बहुत दिखाई देती है। जब दोष अथाऽतो दृष्टिरोगविज्ञानीयमध्याय दृष्टिके भीतर चले जाते हैं तब छोटी वस्तु ___ व्याख्यास्यामः। अर्थ-अब हम यहांसे दृष्टिरोगविज्ञानीय बडी और बड़ी छोटी दिखाई देने लगती है नामक अध्यायकी व्याख्या करेंगे । और दोषके अधोभाग में स्थित होनेपर पा. तिमिररोग के लक्षण। सवाली वस्तु, ऊपर के भागमें स्थित होनेपर सिरानुसाराणि मले प्रथम पटलं श्रिते।। दूरवाली वस्तु तथा पार्श्व में स्थित होनेपर अव्यकमीक्षते रूपं व्यक्तमप्यनिमित्ततः॥ पार्श्वगत अर्थात इधर उधर की वस्तु दिखा अर्थ-वातादि दोषों में से कोई सा एक | ई नहीं देती हैं । इसी को तिमिररोग कहते हैं दोष सिरानुगामी होकर पहिले अर्थात् बाहर तृतीयपटलगत के लक्षण । वाले पर्देका आश्रय लेलेता है, तब रोगी को प्राप्नोति काचतां दोषे तृतीयपटलानिते। स्पष्ट दिखाई नहीं देता है और कभी बिना तेनोर्ध्वमीक्षते नाधस्तनुचैलावृतोपमम् ॥ कारण ही स्पष्ट दिखाई देने लगता है । इसे | यथावर्ण च रज्येत दृष्टिहीयेत च क्रमात्। तिमिररोग कहते हैं । ___ अर्थ-जब दोष तीसरे पटलमें पहुंच जा. दूसरेपटल में प्राप्तहुए के लक्षण ।। ते हैं तव काचता प्राप्त होती है । इस का. प्राप्ते द्वितीयं पटलमभूतमपि पश्यति । | चता के कारण ऊपर को देख सकता है पर भूतं तु यत्नादासनं दूरे सूक्ष्मं च नेक्षते ॥ दूरांतिकस्थं रूपं च विपर्यासन मन्यते । नीचेको नहीं देख सकता । इस रोगमें ऐमा दोषे मंडलसंस्थाने मंडलानीव पश्यति ॥ हो जाता है जैसे कोई बहुत पतला कपडा द्विधैकं दृष्टिमध्यस्थे वहुधा बहुधा स्थित।। ढका हुआ है। दृष्टिका रंग दोषके अनुसा. दृष्टरभ्यंतरगते ह्रस्ववृद्धविपर्ययम् ॥ ४॥ बांतिकस्थमधःसंस्थे दरगं नोपरि स्थिते। । र हो जाता है, जैसे वात दोषसे श्यावादि । पार्श्व पश्येन पावस्थेतिमिराख्योऽयमामयः| तथा दृष्टि धीरे धीरे कम होती चली जाती है For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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