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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ७८२) अष्टांगहृदय । अ० ११ अन्यवर्ति ॥ | की हड्डी के चूर्णकी भावना देकर अंजन यष्टयाहकाकोलीसिंहीलोहनिशांजनम् । लगावै । इससे असाध्य शुक्र रोगकी विवकालिकत छागदुग्धेन मघृतेधूपितं यवैः। र्णता जाती रहती है तथा साध्य शुक्र में इस धात्रपित्रैश्च पर्यायादतिर्नेप्रांजनं परम् ५० | अंजनका अभ्यास करनेसे शुक्र जाता रहताहै। ___ अर्थ--पुंडरिया, मुलहटी, काकोली, क ____अजकमें वेधनादि । टेरी, लोह, हलदी और रसौत, इन सब अजका पार्श्वतो विद्धवा सूच्या विनाव्य द्रव्यों को बकरी के दूधमें पीसकर सघृत चोदकम्। आमले के साथ पर्याय क्रम से बत्ती वनाना समं प्रपीडयांगुष्ऐन वसाट्टैणानुपूरयेत् ५५ व्रणं गोमांसचूर्णेन बद्धं बद्धं विमुच्य च । चाहिये ! यह बत्ती नेत्रांजन में अत्यन्त सप्तराबाद ब्रणे रूढे कृष्णभागे समे स्थिरे ।। हितकारी है। स्नेहांजनं च कर्तव्यं नस्यं च क्षीरसपिंषा। शस्त्रप्रयोग। तथापि पुनराधमाने भेदच्छेदादिकां क्रियाम् अशांतावर्मवच्छस्त्रमजकाख्ये च योजयेत् । युक्त्याकुर्याद्यथानातिच्छेदेन स्थानिमजनम् अर्थ-उक्त उपायों से पीडा की शांति ___अर्थ-अजका को सुई से चारों ओर से न होनेपर अजकाख्य रोगमें अर्मकी तरह वेधकर जल निकाल डाले, फिर अंगूठे से शस्त्रका प्रयोग उचित है। | प्रपीडन करके चर्वी चुपड कर घावमें गोअसाध्य अजका में कर्तव्य । मांसका चूर्ण भरदेना चाहिये और व्रणको अजकायामसाध्यायां शुक्रेऽन्यत्र च तद्विधैः । बार बार खोलकर बांध दैना उचितहै । घेदनोपशमं नेहपानासृकूस्रवणादिभिः । | सातदिन पीछे ब्रणके भरजाने पर और काले कुर्याद्वीभत्सतां जेतुं शुक्रस्योत्सेधसाधनम् | भाग के समान और स्थिर होनेपर स्नेहांअर्थ-असाध्य अजका रोगमें तथा शुक्र जन और क्षार घृतकी नस्यका प्रयोग करना रोगों यथायोग्य स्नेहपान और रक्तमोक्षणादि चाहिये । यदि फिर फूलजाय तो ऐसी रीति द्वारा वेदना की शांति करनी चाहिये । से छेदन भेदन करना चाहिये जिससे अति वीभत्सता को दूर करने के लिये शुक्रका | छेदन द्वारा दृष्टिका निमज्जन न हो। उत्सेधन करना उचित है। पक्वघृत प्रयोग। .. असाध्य शुक्रमें अंजन । नित्यं च शुक्रेषु सृतं यथास्वं नालिकेरास्थिभल्लाततालवंशकरीरजम् । । पामे च मर्श च घृतं विदध्यात्। . भस्माद्भिःस्रावयेत्ताभिर्भावयेत्करभास्थिजम् | न हीयते लग्धवला तथांतचूर्ण शुक्रेप्वसाध्येषु तद्वैवर्ण्यघ्नमंजनम् । स्तीक्ष्णांजनै सततं प्रयुक्तैः ॥ ५८ ॥ साध्येषु साधनायालमिदमेव च शीलितम् अर्थ-शुक्ररोग में यथायोग्य औषध के अर्थ-नारियल का खप्पड, भिलावा, । साथ घतको पकाकर इस वतको पान और ताल, बांस और करील इनकी भस्म को | नस्यद्वारा सदा प्रयुक्त करता रहै । घृतपाजलमें स्रावित करे, उस क्षार जलमें हाथी । नादि से दृष्टि बल प्राप्त करलेती है इससे For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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