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( ५८८ )
कफज मूत्राघात में उपाय | कफजे वमनं स्वेदं तीक्ष्णोष्णककुभोजनम् । यवानां विकृतीः क्षारं कालशेयं च शीलयेत्.
अर्थ-कफज मूत्रकृच्छ्रमें वमन, स्वेदन, तीक्ष्ण उष्ण और कटु भोजन, जौके बने हुए खाद्य पदार्थ, जवाखार और घोल हितकारी होते हैं अन्य प्रयोग |
अष्टांगहृदय ।
खरू,
पिबेन्मद्येन सुक्ष्मैलां धात्रीफलरसेन वा । सारसास्थिश्वदंष्ठैलाव्योपं वा मधुमृत्रवत् ॥ स्वरसं कंटकायी वा पाययेन्माक्षिकान्वितम् शितिवारकबीजं वा तक्रेण श्लक्ष्णचूर्णितम् धवसप्ताह्वकुटजं गुडूचीचतुरंगुलम् | कटुकैलाकरंजं च पाक्यं समधुसाधितम् ॥ तैर्वा पेयां प्रवालं वा चूर्णितं तंडुलांबुना । सतैलं पाटलाक्षारं सप्तकृत्वाऽथवा शृतम्
अर्थ - मद्य के साथ छोटी इलायची पीस कर पानकरै, अथवा आमले के रस के साथ इलायची पावै । अथवा सारसकीं अस्थि, गोइलायची और त्रिकुटा इनके चूर्ण में शहत और गोमूत्र मिलाकर पानकरै, अथवा कटेरी के रस में शहत मिलाकर पीने, अथवा कंजेके वीज बारीक पीसकर तक के साथ पावै, अथवा घायके फूल, सातला, कुडाकी गिलोय, अमलतास, कुटकी, इलायची छाल, कंजा, इनके काढेमें शहत डालकर पीवै, अथवा घायके फूल आदि उक्त द्रव्यों के साथ सिद्ध की हुई पेया पान करे । अथवा मूंगे की भस्म चांवलोंके जल के साथ पीवै, अथवा पाटला के क्षारको जल में घोलकर सात वार छानकर इस क्षारजलमें तेल मिलाकर पीवै । अन्य अवलेह | पाटलीयावशूकाभ्यां पारिभद्रं तिलादपि ।
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म० ११
क्षारोदकेन मदिरां त्थगेलोषकसंयुतम् ॥ पिबेद्गुडोपदंशान्वा लिह्यादेतान् पृथक्पृथक् अर्थ - पाटला का क्षार और जवाखार अथवा नीमखार और तिलखार इनको जल में घोलकर इस क्षारजल के साथ मदिरा तथा उसमें दालचीनी, इलायची, और क्षार मृत्ति
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का मिलाकर पीवै अथवा दालचीनी, इलायची और क्षारमृत्तिका को गुडकी चाशनी के थ अलग अलग मिलाकर चाटै । सान्निपातिक मूत्राघात । सन्निपातात्मके सर्वे यथावस्थमिदं हितम् ॥ अश्मन्यथ चिरोत्थाने वातवस्त्यादिकेषु चा
अर्थ - ऊपर जो पृथक् पृथक दोषों से उस्पन्न मूत्रकृच्छ्र में चिकित्सा कही गई हैं वेही सव सांन्निपातिक मूत्रकृच्छ्र में रोगीकी अवस्था पर विचार करके काममें लावै । थोडे कालके अश्मरी रोग, वातवस्ति, वातकुंडलि का रोगों में उक्त रीति से चिकित्सा कर्तव्य है । अश्मरी में कर्तव्य |
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अश्मरी दारुणो व्याधिरंतकप्रतिमो मतः ॥ तरुणो भेषजैः साध्यः प्रवृद्धश्छेदमर्हति ।
अर्थ - पथरी रोग बडा भयंकर होत! है, यह साक्षात् यमका सहोदर है, नये हुए रोग में औषध काम देजाती है, परंतु पुराना होने पर जब बढ जाता है तब अत्रप्रयोग की आवश्यकता होती है ।
पथरी के पूर्वरूप में कर्तव्य | तस्य पूर्वेषु रूपेषु स्नेहादिक्रम इष्यते ॥ १७
अर्थ - पथरी के पूर्वरूप में स्नेह, स्वेदन और वमन द्वारा चिकित्सा करनी चाहिये ।
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अश्मरी में स्नेहविधि । पाषाणभेदो वसुको वाशिरोऽश्मंतको वरी ।