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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ. ३५ उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत । (९२७) महोदरयकृत्पलीहीदीनवाग्दुर्वलोऽलसः। । शुद्धहृच्छलियेद्धेम सूत्रस्थानविध स्मरन् । शोफवाम्सतताध्मातः शुष्कपादकरः क्षयी अर्थ-गरपीडित व्यक्ति वमन करने के स्वप्ने गोमायुमारिनकुलब्यालवानरान् ।। पीछे हितकारी पान भोजन करके शुद्ध प्रायः पश्यतिशुष्कांचवनस्पतिजलाशयान् | हृदय होनेपर सूत्रस्थानोक्त विधि के अनुसार मम्यते कृष्णमात्मानं गौरी गौरंच कालकः सुवर्ण की भस्म का अभ्यास करे । विकर्णनासानयनं पश्यत्तदिहतेंद्रियः।। गरविषपर अवलेह । .. अर्थ-गर विष से पीडित रोगी पांदुवर्ण, शर्कराक्षौद्रसंयुक्तं चूर्ण ताप्यसुवर्णयोः। कृश,मन्दाग्नियुक्त, खांसी, श्वास और ज्वर से लेहः प्रशमयत्युग्रं सर्वयोगकृत विषम् । पीडित होता है । वायुकी प्रतिलोमता, अर्थ-सौनामाखी और सुवर्ण की भस्म निद्रालुता, निंतापरायणता, महोदर, यकृत | इनको मिश्री और शहत मिलाकर चाटै इस प्लीहा, बचन में दीनता, दुर्बलता, आलस्य, के सेवन से अत्यन्त उग्र और सब प्रकार सजन, निरंतर उदराध्मान, हाथपांव में सूखा का संयोगज दारुण गरविष शांत होजाता है पन, क्षयी, स्वप्नमें गीदड, बिलाव, नकुल गरोपहताग्नि का उपाय । सर्प और वन्दरों का प्रायः दिखाई देना, त मूर्वामृतानतकणापटोलविव्यचित्रकान् । था सूखी हुई वनस्पति और जलाशयों का वचामुस्तविडंगानि त कोष्णांबुमस्तुभिः । दिखाईदेना, ये लक्षण होते हैं। और रोगी पिवद्रसेन वाम्लेन गरोपहतपावकः ॥५८॥ गौर वर्ण हो तो अपने ताई कृष्णवर्ण और अर्थ-गरबिष में अग्नि के नष्ट होनेपर कृष्ण वर्ण हो तो गौरवर्ण मानता है, और | मूर्वा, गिलोय, तगर, पीपल, पर्वल, चव्य, गरविष के कारण हतेंद्रिय होकर अपने को | चीता, वच, नागरमोथा, वायविंडग, ये सब नाक, कान और नेत्रहीन देखता है। सम्पूर्ण द्रव्य तक, ईषदुष्ण जल, दही का गरपीडित का नाश । तोड़ वा अम्लरस के साथ पीने को देवै । एतैरन्यैश्च बहुभिः क्लिष्टो घोरैरुपद्रवैः॥ विषजन्य तृषाका उपाय । गरातों नाशमाप्नोति कश्चित्सद्यो पारावतामिषशठीपुष्कराह शृतं हिमम् । ऽचिकित्सितः। गरतृष्णारजाकासश्वासाहयाज्वरापहम् ॥ अर्थ-ऊपर कहेहुए इन उपद्रवों से तथा | अर्थ-कबूतर का मांस, कचूर, पुष्कर. अन्य बिना कहे हुए घोर उपद्रवों से | मूल, इनको डालकर औटाया हुआ जल पीडित हुआ गरविष पीडित कोई २ रोगी ठंडा करके पान कराने से गरविष से उत्पन्न चिकित्सा न किये जाने पर शीघ्रही मर- तृषा, वेदना, श्वास, हिचकी और स्वर जाते जाता है। रहते है। गरपीडित का कृत्य । .. सौ में एकका जीवन । गरातो पांतवान् भुक्त्वा तत्पथ्य- | विषप्रकृतिकालान्नदोषदृप्यादिसंगमे। पानभोजनम् । विषसंकटमुद्दिष्टं शतस्यैकोऽत्र जीवति ॥ . For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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