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चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत ।
(४८३ ॥
उपकारी होता है । ऊपर से बकरीका दूध अर्थ-सेंधानमक और पीपल इनको मपीना चाहिये ।
हीन पीसकर गुनगुने जलके साथ फां के । बिडंगादि चूर्ण । अथवा सोंठ और मिश्री दहीके तोडके साथ, विडंग नागरम् राम्रापिप्पलीहिंगुसैंधवम्। अथवा पीपल के चूर्णको दहीके साथ सेवन भार्गी क्षारश्च तच्चूर्ग पिवैद्धा घृतमात्रया |
करनेसे कासरोग दूर होजाता है। . सफकेऽनिल से कासे श्वासाहिध्माहताग्निषु
अन्य उपाय। ___ अर्थ-बायबिडंग, सोंठ, रास्ना, पीपल,
पिवेददरमशो वा मदिरादधिमस्तुभिः। हींग, सेंधानमक, भाडंगी और जवाखार इन
अथवा पिप्पलीकल्कं घृतभृष्टं ससैंधवम् ॥ का चूर्ग वृत मिलाकर मात्रानुसार देवै । इस अर्थ-बेरकी मज्जाको मदिरा, दही वा से कफज कास, वातज कास, श्वास, हिमा | दही तोडके साथ, अथवा पीपलके कल्कको और मंदाग्नि नष्ट होजाते हैं।
घीमें भूनकर उसमें सेंधानमक मिलाकर सेवातजकास में दुरालभादि लह । वन करने से कासरोग जाता रहता है । दुरालभां श्रंगबेरं शठी द्राक्षां सितोपलाम्॥
कासपर धूमपान । लिह्यातकर्करश्रृंगी च कासे तैलेन बातजे ।
कासी सपीनसो धूपं स्नैहिकं विधिना पिवेत् अर्थ-धमासा, अदरख, कचूर, दाख, मि- हिमाश्वासोक्तधूमांश्च क्षीरमांसरसाशनः श्री और काकडासींगी इनके चूर्ण को तेल में अर्थ-खांसी और पीनससे पीडितरोगी मिलाकर वातज खांसी में चाटै।। विधिपूर्वक स्नैहिक धूमपान करे । तथा हि.
उक्तरोगपर दुःस्पर्शादि चूर्ण । ध्मा और श्वासमें कहेहुए भी धूमपान करे। दुस्पर्शी पिचली मुस्तां भार्गी कर्कटकी- | दूध और मांसरस का अनुपान करे । शटीम् ॥ १४ ॥
कास में आहार। पुराणगुडतैलाभ्यां चूर्णितान्यवलेहयेत् । तत्सकृष्णां शुठी च सभार्गी तद्वदेव च ॥ रसैर्माणात्मगुप्तानां युषैर्वा भोजयद्धितान्,
| ग्राभ्यानूपोदकैः शालियवगोधूमषष्टिकान् । अर्थ-धमासा, पीपल, मोथा, भाडंगी,
___अर्थ-ग्राम्य, आनूप और जलचर जीवों काकडासींगी और कचूर इनके चूगेको पु- के मांसरस के साथ, अथवा उरद और रानेगुड और तेलमें मिलाकर वातज खांसी केंच के बीजों के यूष के साथ शालीचांवल. में चाटै । तथा पीपल और साठके चूर्णको । जौ, गेंहं और साठी चांवल इनमें जो अथवा भांडगी और सोंठके चूर्ण को पुराने
अनुकूल हो वही खाने को दे । गुड और तेलके साथ चाटै ।
बातज कास में पेया। अन्य चूर्ण ।
यवानीपिप्पलीबिल्बमध्यनागराचित्रकैः । पिवेच्च कृष्णां कोयन सलिलेन ससैंधवाम् रास्नाजाजीपृथक्पणींपलाशशठिपौष्करैः ॥ मस्तुना ससितां शुठी दधना वा सिद्धां स्निग्धाम्ललवणां पेयामनिलजे पिबेतू
कणरेणुकाम् ॥ १८ ॥ कटिहत्पार्श्वकोष्ठार्तिश्वासहिध्माप्रणाशनीम्
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