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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir म.३ चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत । (४९९ ] शृतैर्नागरदुःस्पर्शापिप्पलीशठिपौष्करैः ॥ । के जड, पत्ते, फल और अंकुरों का रस तथा पिष्टैः कर्कटशृंग्याच समैः सर्पिर्विपाचयेत्। इन्हीं का कल्क मिलाकर पकाया हुआ घृतं सिद्धेऽस्मिश्चूर्णिता क्षारौ द्वौपञ्चलवणानि च ।। १५९ ॥ खांसी, ज्वर, और अरुचिको दूर करता है। दत्त्वा युक्त्या पिवेन्मात्रां क्षयकासनिपीडितः भोजन पर सिद्धघृतपान । अर्थ-चव्य, त्रिफला, भाडंगी दशमूल, | द्विगुणे दाडिमरसे सिद्धं वा व्योषसंयुतम् । पिवेदुपरिभुक्तस्य यवक्षारघृतं नरः। चीता, कुलथी, पीपलामूल, पाठा, बेर, और पिप्पलीगुडासद्ध वा छागक्षीरयुतं घृतम् ॥ जौ इनके काढमें सोंठ, दुरालभा, पीपल,क- अर्थ-भोजन करने के पीछे कासादि चूर, पुष्करमूल और काकडासींगी, इन सब का शमन करने के लिये अनार के दुगुने को समान भाग लेकर पीस ले फिर उक्त रस में त्रिकुटा का कल्क बनाकर घी को काढेमें शुंठयादि के कल्कके साथ घृतको सि- पकावै । इस घी में जवाखार मिलाकर द्ध करे । सिद्ध होनेपर इसमें दोनों खार और पीवे । अथवा पीपल और गुड से चौगुना पांचों नमक पीसकर डालदे । इसका मात्रा- घी, घीके बरावर बकरी का दूध और दूधसे नुसार पान करने से क्षय और कास जाते चौगुना पानी मिलाकर पकावै, इस पीके रहते हैं। सेवन से भी खांसी, ज्वर और अरुचि जाते कासमादि घृत । रहते है। कासमभयामुस्तापाठाकट्फलनागरैः॥ । क्षयकास पर चव्यादि घृत । पिप्पल्या कटुरोहिण्या काश्मर्या स्वरसेन च एतान्यग्निविवृद्धयर्थ सपीषि क्षयकासिनाम् अक्षमात्रैर्वृतप्रस्थ क्षीरद्राक्षारसाढके। १६१।। | स्युर्दोषवद्धः कंठोर स्रोतसां च विशुद्धये ॥ पचेच्छोषज्वरप्लीहसर्वकासहरं शिवम् ।। अर्थ-ऊपर जो चव्यादि घी वर्णन किअर्थ-कसदी, हरड, मोथा, पाठा, का. | ये गये हैं, ये सब क्षयकासवाले गोगयों की यफल, सोंठ, पीपल, कुटकी और खंभारी अग्नि बढाने के निमित्त हैं, इन से दोषों प्रत्येक एक तोला लेकर इनका काढा करले द्वारा उपलिप्त कंठ, वक्षःस्थल और संपूर्ण फिर एक प्रस्थ धी, दूध और दाखका रस स्रोत शुद्ध होजाते हैं। एक आढक इनको पकाकर तयार करले । यह घृत शोष, ज्वर, प्लीहा, और सब प्रकार श्वासकास पर विशेष स्नेह । प्रस्थोन्मिते ययक्वाथे विंशतिविजयाः पचेत् । की खासियों को दूर करता है यह घृत क स्विन्ना मृदित्वा तास्तस्मिन्पुराणापटूपलं स्याणकारक है। गुडात् ॥ ६६ ॥ ___ रसकल्कादि घृत । पिप्पल्या द्विपलं कर्ष मनोवाया रसांजनात् वृषव्याघ्रीगुडुचीनां पत्रमुलफलांकुरान् ॥ दत्त्वार्धाक्ष पचेद्भयास लेहः श्वासकासनुत् रसकल्कैर्घत पक्कं हंति कासज्वरारुचीः। अथे-एक प्रस्थ जौ के काढ़े में बास अर्थ-अडूसा, कटेरी और गिलोय, इन | हरड पकावै, जब हरड सीजजाय तब उन For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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