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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org अष्टांगहृदये । (४४) पीत्वा सोग्रापफलं वायुष्णं योजयेत्ततः ॥ स्वेदनं फलवतिं च मलवातानुलोमनीम् । नाम्यमानानि घांगानि भृशं स्विम्नानि वेष्टयेत् अर्थ -- अलसक रोग में साध्यासाध्य का विचार करके साध्यलक्षणवाले अदुष्ट स्तब्धीभूत आम अर्थात् अपक अन्नको परिपाक काल की अपेक्षा विना किये ही वमन से शीघ्र निकाल देवै । वमन कराने के लिये वच, लवण और मेनफल गरम जलके साथ पिलाना चाहिये । पीछे स्वेदन क्रिया करे 1 और गुद्दा में मल और वायुका अनुलोमन करने वाली फलवती का प्रयोग करे । तथा आम दोष के कारण जो अंग संकुचित होगये हों उन्हें अत्यन्त स्वदित करके कपड़े से लपेट दें । | प्रवल विसूचिका में उपाय | विसूच्यामतिवृद्धायां पादहिःप्रशस्यते । तदहश्चोपवानं विरिक्तवदुपाचरेत् । १७ । अर्थ- जो विशुचिका अति प्रवल हो तो दोनों पांवों की पाणि में लोहे की शलाका से दग्ध करना उत्तम है । उस दिन रोगी को उपवास कराके विरचन वाले की तरह पेयादि देकर चिकित्सा करे । अजीर्णवाले का उपाय | तीव्रार्तिरपि नाजीर्णी विवेच्छूलघ्नमौषधम् । आप्रासन्नोऽनलोनालेपक्तुदोषोपधाशनम् १८ निहन्यादृषि चैतेषां विग्रमः सहसाऽऽतुरम् । अर्थ - अजीर्ण वाला रोगी यदि तीव्र शूल से पीडित हो तो भी उस को शूलनाशिनी औषधि न देवै । यहां शूल उपलक्षणमात्र है, विशूचिका में छर्दि और अतिसार के दूर करने Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० ८ वाली औषध भी न देवै । कारण यह है कि आमद्वारा मंद हुई जठराग्नि वातादि दोषों को शूलादि नाशक औषध को और अन्न पेयादि भोजन को परिपाक करने में समर्थ नहीं है । किन्तु इनका सेवन करना अर्थात् इन तीनों की व्यापत्ति रोगी का शीघ्रही नाश कर देती है, इस लिये शूलादिनाशिनी औषध न देकर पूर्वोक्त वमनकारक औषध देवे ॥ औषध का समय | जीर्णाशने तु भैषज्यं युंज्यात् स्तब्धगुरूदरे १९ दोषशेषस्य पाकार्थमग्नेः संधुक्षणाय च । अर्थ- - जब उपवासादि द्वारा अजीर्ण रोगी का पहिला किया हुआ भोजन पचजाय तब तथा उदर में भारापन और स्तब्धता हो तो अर्जी का बचा हुआ दोष पचाने के लिये और अग्नि के उद्दीपन करने के लिये औषध का प्रयोग करै । औषध का भेद | शांतिरामविकाराणां भवति त्वपतर्पणातू अर्थ - अपतर्पण ( न खाना वा थोडा खाना ) द्वारा आलस्य, जड़ता और अग्नि मांद्यादि आम अर्थात् रोग की शान्ति होजाती है For Private And Personal Use Only औषध की यथायोग्यता त्रिविधं त्रिविधे दोषे तत्समीक्ष्य प्रयोजयेत् । तत्राऽल्पे लंघनं पथ्यं मध्ये लंघन पाचनम् २१ प्रभूते शोधनं तद्धि मूलादुन्मूलयेन्मलान् । अर्थ - तीन प्रकार के दोषों में देश, काल और अग्नि की परीक्षा करके तीन प्रकार की औषध देनी चाहिये। इन में से अल्पदोष में लंघन, मध्यदोष में लंघन पाचन
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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