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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अष्टहृदये । ( ४८ ) अर्थ - शांडाकी और अन्य आसुत जो काल पाकर खड्ढे होजाते हैं ये रुचिकर और हलके होते हैं । (मूली और सरसों के शाक उवाल कर उस में काला जीरा और राई डालकर थोडे दिन रख दियाजाय और जब वह खट्टा होजाय तब उसे शांडाकी कहते हैं । तथा आम ल्हिसौडे आदि राई नमक मसाला डालकर रखदिये जाते हैं उन्हे आसुत अथवा आचार कहते हैं ) ॥ कांजी के गुण | श्रम धान्याम्लंभेदितीक्ष्णोष्णांपत्तकृत्स्पर्शशतिलम् | श्रमक्कमहरं रुच्यं दीपनं वस्तिशूलनुत् ॥ ८० ॥ शस्तमास्थापने इंद्यं लघु बातकफापहम् । अर्थ - धान्याम्ल भेदी, तीक्ष्ण, उष्ण, पित्त कारक छूने में शीतल होता है तथा और ग्लानि को हरता है, रुचिकर है, दीपन है बस्ति के शूल को नष्ट करता है और आस्थापन कर्म में प्रशस्त है, हृदय को हितकारी हलकी और वात कफ को नाश करता है । तीसरे दिन पतला पदार्थ खट्टा होने पर कांजी अथवा धान्याम्ल कहलाता है ॥ गौ आदि के मूत्र के गुण । "मुत्रं गोऽजाविमहिषीगजाश्वोष्ट खरोद्भवम् पित्तलं रूक्षतक्ष्णिोष्णं लवणानुरसं कटु | कृमिशोफोरानाहशूलपांडुकफानिलान् । ८२| गुल्माऽरुचिविषश्विनष्टाशांति जयेल्लघु । अर्थ- गौ, बकरी, भेड़, भैंस, हाथी, घोड़ा, ऊंट, गवा इनका मूत्र पित्तकर्त्ता, रूक्ष, तीक्ष्ण, गरम, कुछ खारी तथा तीखा होता है । ये कृमिरोग, सूजन, उदररोग, Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अफरा, शूल, पांडुरोग, कफ, वात, गुल्मरोग अरुचि, विषदोष, श्वित्रकुष्ट, कुष्ठअर्श, इतने रोगोंको दूर करदेताहै, तथा हलका होता है । M43 अध्यायका उपसंहार | तोयक्षीरेक्षुतैलानां वर्गैर्मद्यस्य च क्रमात् ॥ ८३ ॥ ति द्रवैकदेशोऽयं यथास्थूलमुदाहृतः,, । अर्थ - इस अध्यायमें तोयवर्ग, दुग्धवर्ग, इक्षुवर्ग, तेलवर्ग, मद्यवर्ग, में द्रव द्रव्यांका संक्षेपरोतिसे वर्णन किया गया है । इति श्री अष्टांगहृदये भाषा टीकायां पंचमोऽध्यायः ॥ ५ ॥ 66 अ० षष्ठोऽध्यायः For Private And Personal Use Only - अथातोऽन्नस्वरूप विज्ञानीयमध्यायं व्याख्या स्यामः । 2 अर्थ- अब हम यहांसे अन्न द्रव्यके स्वरूपका ज्ञान जिसमें वर्णन किया गया है उस अध्यायकी व्याख्या करेंगे | अन्न दो प्रकार का होता है एक शूक, दूसरा शिवी । इनमें शुक धान्य अत्यन्त उपयोगी होनेसे प्रधान है, इसलिये पहिले शूकधान्यका वर्णन है । atter वर्णन | रक्तो महान् सकलमस्तूर्णकः शकुनाहृतः सारामुखो दीर्घशूको रोधशुकः सुगंधकः॥१॥ पांडुकः पुंडरीकश्व प्रमोदीगौरशालिकः । जांगला लोहवालाख्याः कर्द्दमाःशीतभीरुकाः पतंगास्तपनीयाश्च ये चान्ये शालयः शुभाः । स्वादुपाकरसाः स्निग्धा वृप्या वद्धाल्पवर्चसः कषायानुरसाः पथ्या लघवो मूत्रला हिमाः।
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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