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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir म. १३ उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत । (७८७) त्रयोदशोऽध्यायः। इसको रातमें पीनेसे तिमिर रोग नष्ट होजा ताहै । यह इस रोग पर उत्तम औषध हैं। - CC: ___ अथवा दाख, चंदन, मजीठ, काकोली, अथाऽतस्तिमिरप्रतिषेध व्याख्यास्यामः । क्षीरकाकोली, जीवक, मिश्री, सितावर, मेदा, अर्थ--अब यहांसे तिमिर प्रतिषेधनामक प्रपौंडरीक, मलहटी और नीलोत्पल प्रत्येक अध्याय की व्याख्या करेंगे। एक तोला, एक प्रस्थ पुराना घी और इतनम तिमिरकी चिकित्सा में शीघ्रता ॥ ही दूध मिलाकर सबको पकावे, यह काचरोग "तिमिरं काचतांयातिकाचोन्यांध्यमुपेक्षया तिमिररोग, रक्तराजी और शिविदना इन नेत्ररोगेष्वतो घोरं तिमिरं साधयेद्रुतम् । रातारा अर्थ-तिमिर रोगकी चिकित्सा में उपेक्षा करनेसे काचरोग होजाता है और काचरोग काचनाशक घृत । से अंधापन उन होजाता है, इससे यह । पटोलर्निवकटुकादासेिव्यवरावृषम् ६ रोग सब नेत्ररोगों में भयानक होता है, सधन्वयासत्रायंती पर्पट पालिकं पृथकू । प्रस्थमामलकानां च क्वाथयेन्नल्वणेऽभसि । इसलिये इसकी चिकित्सा में शीघ्रता करनी तदाढकेऽर्धपलिकैः पिष्टैः प्रस्थं घृतात्पचेत् चाहिये । मुस्तभूनिंबयष्टया कुटजोदीच्यचंदनैः ८ तिमिरनाशक घृत ॥ सपिप्पलीकैस्तत्सर्पिणकर्णास्यरोगजित् विद्रधिवरदुष्टातर्विसपिचिकुष्ठनुत् ९. तुलां पचेत जीवत्या द्रोणेऽपां पादशेषिते । तत्क्वाथे द्विगुणः झीरं घृतप्रस्थं विपाचयेत् विशेषाच्छुक्रतिमिरनक्तांध्योष्णाम्लदाहनुत् प्रपोंडरीककाकालीपिप्पलीरोधसैंधवैः। अर्थ--पर्वल, नीमकी छाल, कुटकी, दारुशताहामधुपद्राक्षासितादारफलत्रयः ॥३॥ हलदी, नेत्रवाला, त्रिफला, अडूसा, जवासा, कार्षिकनिशि तत्पीत तिमिरापहरं परम् । त्रायमाण, पित्तपापडा, प्रत्येक एक पल, द्राक्षाचंदनमंजिष्ठाकाकोलीद्वयजीवकैः ॥४॥ सिताशतावरीमेदापुंडामधुकोत्पलैः। आमला दो सर, इन, सबको एक द्रोण जल पचेज्जीर्ण घृतप्रस्थं समक्षीरं पिचून्मितः५/ | में औटावे, चौधाई शेष रहनेपर उतार कर हंति तत्काचतिमिररक्तराजीशिरोरुजः। छानले, फिर इसमें मोथा, चिरायता, मुल अर्थ-एक तुला जीवंती को एक द्रोण हटी, कुडा, नेत्रवाला, रक्तचंदन और पीपल, जलमें पकावै, चौथाई शेष रहनेपर उतार प्रत्येक आधा आधा पल लेकर पीसकर कर छानले फिर इस क्वाथमें दुगुना दूध / मिलादे, और एक प्रस्थ घी डालकर पाक की और एक प्रस्थ घी डालकर पकावै और विधि से पकावे | इस घृतका सेवन करने इसमें प्रपौंडरीक, काकोली, पीपल, लोध, से नासिका, कर्ण, और मुखरोग, तथा सेंधानगक, सौंफ, मुलहटी, दाख, मिश्री, / विद्रधि, ज्वर, दुष्टव्रण, विसर्प, अपची और देवदारू, त्रिफला प्रत्येक एक कर्ष मिलादे, । कुष्टरोग और विशेष करके फूला, धुंध, For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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