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अ. १६
चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत ।
(६३३)
स्थैर्यकृत्सर्वधातूनां बल्यं दोषानुबंधहृत् ॥
अन्य घृत । अर्थ-उदर रोग में सब प्रकार की दाडिमात्कुडवो धान्याकुडबाध पलं पलम् औषधी के सेवन के पीछे दूध और तक चित्रकाच्छंगवेदाच पिप्पल्यर्धपलं च तैः॥ का अनुपान करना चाहिये, तक सम्पूर्ण
कल्कितर्विशतिपलं धूतस्य सलिलाढके।
सिद्धं हृत्पांडुगुल्मार्शःप्लीहवातकफार्तिनुत् ॥ धातुओं को स्थिर कर देता है, तथा बल
दीपनं श्वासकासघ्नं मूढवातानुलोमनम् । कारक और दोषों के अनुबन्धन को दूर | दुःखप्रसविनानां च वंध्यानां च प्रशस्यते ॥ करनेवाला है।
अर्थ-अनार एक कुडब,धनियां आधाकुडव, दूध को श्रेष्ठता।
चीता और सौंठ एक एक पल, पीपल आधा भैषजोपचितांगानां क्षीरमेवामृतायते ॥ अर्थ-जिस रोगी का देह औषधों के
पल, इन सबका कल्क करके बीस पल घी सेवन से पुष्ट होगया है, उसको दूध पान
समेत एक आढक जलमें पकावै । यह घृत कराना ही अमृत तुल्य है ।
हृद्रोग, पांडुरोग,गुल्मरोग, अर्शरोग, प्लीहा, इतिश्री अष्टांगहृदयसहितायां
वातकफ, श्वास और खांसी इन रोगों को भाषाटीकान्वितायां चिकित्सित
दूर करताहै अग्निसंदीपनहै, मूढ वातका स्थाने उदरचिकित्सितनाम अनुलोमन करनेवालाहै, यह कष्टसे प्रसव पञ्चदशोऽध्यायः । होनेवाली और बंध्यात्रियों के लिये विशेष
उपयोगी है।
उक्तरोगमें वमनादि । षोडशोऽध्यायः।
स्नेहित वामयेत्तीक्ष्णैः पुनः स्निग्धं च शोधयेत
पयसा मूत्रयुक्तेन बहुशः केवलेन वा ॥५॥ अथाऽतःपांडुरोगचिकित्सतंव्याख्यास्यामः ____ अर्थ-पांडुरोगी को स्निग्ध करके तीक्ष्ण ... अर्थ-अब हम यहांसे पांडुरोगचिकित्सा औषधियों द्वारा पमन करावै । फिर पुननामक अध्याय की व्याख्या करेंगे। वार स्निग्ध करके गोमूत्र और दूधसे अथवा
पांडुरोगमें कल्याणकघृत । केवल दूध द्वारा बार बार शोधित करे । पांड्वामयी पिवेत्सर्पिरादौ कल्याणकायम्। अन्य प्रयोग। पंचगव्यं महातिक्तं शृतं वाऽरग्वधादिना ॥ दतीपलरसे कोणे काश्मर्याजलिमासुतम् ।
अर्थ-पांडुरोगी को प्रथमही कल्याणक | द्वाक्षांजलिं वा वृदित तत् पिवेत्घृतपान करावे, फिर अपस्मार चिकित्सित
पांडुरोगाजित् ॥५॥ में कहा हुआ पंचगव्य घृत, कुष्ठचिकित्सा
मूत्रेण पिष्टां पथ्यां वा तत्सिद्धं वा फलत्रयम् में कहा हुआ महातिक्तक घृत, अथवा आ
अर्थ-पांडुरोगी के लिये दंती के एक रग्वधादि गणोक्त द्रव्योंसे पकाया हुआ घी
पल कुछ गरम रसमें एक. अंजली खंभारी . देना चाहिये।
| के फलों का आसुत अथवा एक अंजली
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