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निदानस्थान भाषाटीकासमेत ।
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पूर्व चेतस्ततो देहस्ततो विस्फोटतइनमः। दोष से मिलता है, उसी दोषका स्वभाव सदाहमस्तस्य प्रत्यहं वर्धते ज्वर ४५॥ इसमें आजाता है। जब यह सौभ्यगुण विअर्थ-अथर्ववेदोक्त अभिचारक मंत्रों द्वारा
शिष्ट कफ से युक्त होता है तब ज्वर में शीत जिस पर मारण प्रयोग कियाजाता है उस का नाम लेलेकर आहुति दीजाती है । उस
और जब तेजोगुणविशिष्ट पित्त से मिलता
है तब दाह, और जब पित्तकफ से युक्त हुयमान मनुष्य का मन प्रथम संतप्त होताहै
होता है तब बारबार कभी दाह और कभी पीछे देह अभितप्त होती है, तत्पश्चात् वि
शीत उत्पन्न करता है । इसलिये वातकफ स्फोट, तृषा, भ्रम, दाह, और मूर्छा इनसे
घर सौग्य और वातपित्तज्वर तीक्ष्ण हो. युक्त ज्वर प्रतिदिन बढता है ॥
ता है। संक्षेप से ज्वर के दो भेद । इति ज्वरोऽष्टधा दृष्टः
अंतःचाहिराश्रप ज्वर । समासाद्विविधस्तु सः।
____भंतः संश्रये पुनः॥४८॥ मानसी
./ ज्वरेऽधिकविकाराःस्युरंतःक्षोभो मलग्रहः। प्राकृतो वैकृतः साध्योऽसाध्यः सामो
| बहिरेव वहिर्वेगे तापोऽपि च सुसाध्यता ॥ निरामकः।
अर्थ-अंतराश्रय घर में अंतःविकार अर्थ-पूर्वोक्त प्रकार से ज्वर आठ प्रकार अधिक होते हैं, तथा तीव्रदाह, और मल का होता है, फिर वही उबर संक्षेप से दो मूत्रादि का विवंध होता है । वहिराश्रय ज्वर दो प्रकार का होता है, यथा (१) शारीरक में केवल बाहर ही ताप होता है, इसमें तीवदाह और मानसिक । (२) सौम्य और तीक्ष्ण । | और मलादि की विवद्धता नहीं होती है । (३) अंतराश्रय और वहिराश्रय । (.) इसलिये वहिर्वेगजर सुखसाध्य और अंतप्राकृत और वैकृत । (५) साध्य और राश्रय जर दुःसाध्य होता है । असाध्य । (६) साम और निराम। प्राकृतवैकृत ज्वरके लक्षण ।।
शारीरमानस ज्वर । वर्षाशरसंतेषु वाताधैः प्राकृताक्रमात् । पूर्वे शरीरे शारीरे तापो मनसि मानसे १७ वैकतोऽन्यः स दुःसाभ्यः प्रायश्च. ___ अर्थ-शारीरक ज्वर में प्रथम शरीर में
प्राकृतोऽनिलात् ॥५०॥ फिर मन में ताप होता है । इसी तरह मा
___ अर्थ-वर्षा, शरत् और बसंत काल में नस ज्वर में प्रथम मनमें पीछे शरीर में ताप
यथाक्रम वातादि तीनों दोषों द्वारा जो ज्वर होता है ॥
होता है उसको प्राकृतज्वर कहते हैं अर्थात सौम्य और तीक्ष्णज्वर ।
वर्षाकाल में वातजज्वर प्राकृत होता है, पवने योगवाहित्वाच्छतिंश्लेष्मयुतेभवेत् ।
शरत्काल में पित्तज्वर और वसंतकालमें कफ दाहः पित्तयुते मित्रे
ज्वर प्राकृत होता है । इनसे विपरीत लक्षअर्थ-वायु योगवाही होता है, यह जिस णवाला अर्थात् वर्षादि ऋतु में वातादि
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