SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 938
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० २२ उत्तरस्थान भाषाकासमेत। (८४९) अर्थ-शीतदंत की पाली को नीहिमुख | डकर कृमिदंत की तरह चिकित्सा करे । यंत्रद्वारा विलेखन करके अत्यन्त गरम तेल उस अधिदंत के उखाडने पर वहां रुधिर से दग्ध करे, तथा उसमें शहत, मोथा, की स्थिति न हो तो उस स्थान को दग्ध सेंधानमक,अनार की छाल, त्रिफला,सौत, करके प्रण के समान चिकित्सा करे । प्रियंगु, जामन की गुठली और सोंठ इनके शर्करानाशक उपाय । द्वारा प्रतिसारण करे । बड और पीपल | अहिंसन दंतमूलानि दंतेभ्यः शर्करां हरेत्।। आदि दूधवाले वृक्षों के काथका कवल तथा क्षारचूर्णमधुयुतैस्ततश्च प्रतिसारयेत्। अणुतैल की नस्य लेवे । ___ अर्थ--दांतकी जड में कुछ हानि न दंतभेदादि का उपाय । पहुंचे, ऐसी रीति से दंतलेखक शस्त्र द्वारा दंतहर्षे तथा भेदे सर्या वातहरा क्रिया ॥ सब शर्करा को खुरच खुरच कर दांतोंसे तिलयष्टीमधुशतं क्षीरं गंडूषधारणम् । निकाल देवे । पीछे शहत और क्षार मिलकर __अर्थ-दतहर्ष और दंतभेद में सब प्रकार | वहां रिगड देवै ॥ की वातनाशिनी क्रिया करनी चाहिये।इसमें कपालिका का उपाय। तिल और मुलहटी के साथ दूध पकाकर कपालिकायामप्येवं हर्षोकं च समाचरेत् ॥ गंडूष धारण करे । अर्थ-कपालिका रोगमें भी यही चिकित्सा दांतों के हिलने का उपाय । | तथा दंतह?क्त चिकित्सा करनी चाहिये । सस्नेहं दशमूलांबु गंडूषः प्रचलदिजे ॥१४ | कमिदंत का उपाय । तुत्रोधकगाश्रेष्ठापत्तंगपंटुघर्षणम्। जयेद्विनावणैः स्विन्नमचलं कृमिदंतकम् । निग्धाशील्यायथावस्थनस्यानकवलादयः स्निग्धैश्चालेपगंडूषनस्याहारैश्चलापहैः ॥ अर्थ--दांतों के हिलने में दशमल के | गुडेन पूर्ण सुषिरं मधूच्छिष्टेम वा दहेत् । काढे, स्नेहमिलाकर गंडूष धारण करे। तथा सप्तच्छदार्कक्षीराभ्यां पूरणं कृमिशूलजित् । । अर्थ--न हिलनेवाले कृमिदंत को प्रथम नीलाथोथा, लोध, पीपल, त्रिफला, लालचंदन स्वेदित करके विस्रावण द्रव्यों के द्वारा और नमक से घर्षण करे । तथा अवस्था | लालादि स्राव कराकर तथा वातनाशक नुसार स्निग्ध नस्य, अन्न और कवलादिक द्रव्य, स्निग्ध प्रलेप, गंडूष, नस्य और का अभ्यास करे । आहार का प्रयोग करना चाहिये । गुड . अधिकदंत का उपाय । अधिदंतकमालिप्तं यदा क्षारेण अर्जरम् । | वा मोमसे कोडों के किये हुए छेदको भर. कृमिदतमिवोत्पाटप तदश्योपचरेत्तदा ॥ कर तप्त सलाई से दग्ध करदे । सातला भनवस्थितरतेच दग्धे प्रण इव क्रिया। और आक का दूध भरने से भी कीडोंद्वारा .. अर्थ-अधिदत को क्षारद्वारा लिप्त किया हुआ शूल निवारित होजाता है। करदे । ऐसा करने से जब वह जर्जरीभूत अन्य प्रयोग। होजाय तब इनको कमिदंत की तरह उखा. हिंगुकटफलकासासस्वर्जिकाकुष्टंघल्लजम् ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy