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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (८४०) अष्टांगहृदय । अ० २२ - उक्तरोग में नस्यादि । अर्थ-कफजओष्ठ प्रकोप में जोकों द्वारा खंडोष्ठविहितंनस्यतस्य मूनि च तर्पणम् । रक्त निकालकर पाठा, जवाखार, मधु और अर्थ-वातजनित ओष्ठ प्रकोप में खंडौ- त्रिकुटा द्वारा प्रतिसारण करे । तथा कफको ष्ठविहित नस्य तथा मस्तक पर तर्पण का नाश करनेवाले धूम, नस्य और गंडूष का प्रयोग करे । प्रयोग करे। पित्तजओष्टकोपमें रक्तस्राव । मेदोज ओष्ठकोपका उपाय ) पित्ताभिघातजावोष्ठी जलौकोभिरुपाचरेत् स्विनं भिन्नं विमेदरकं दहेन्मेदोजमग्निना। अर्थ-पित्तज तथा अभिघातज ओष्ठ- प्रियंगुरोधत्रिफलामाक्षिक प्रतिसारयेत् ॥ प्रकोप में जोक लगाकर रक्त निकाल डालना अर्थ- मेदासे उत्पन्न हुए ओष्ठप्रकोप में चाहिये । पसीनों से ओष्ट को स्विन्न और अस्त्र से . उक्तरोग प्रतिसारण । चीरकर मेदा को निकालकर अग्निसे दग्ध रोधसर्जरसक्षौद्रमधुकैः प्रतिसारणम् ।। करे, तथा प्रयंगु, लोध, त्रिफला, और मधु . अर्थ-उक्तरोगों में लोध, राल, शहत | द्वारा प्रतिसारण करे। और मुलहटी द्वारा प्रतिसारण करना चाहिये। जलाद की चिकित्सा । उक्तरोगमें अभ्यंजन । सक्षौद्रा घर्षणं तीक्ष्णा भिन्नशुद्ध जलार्बुदे । गुडूचीयष्टिपत्तंगसिद्धमभ्यंजनेवृतम् ।। अवगाढेऽतिवृद्ध वा क्षारोऽग्निर्वा प्रतिक्रिया अर्थ-गिलोय, मुलहटी, और लालचंदन ___ अर्थ -जलार्बुद को चीरकर क्लेदको उसमें इनसे सिद्ध किया हुआ घृत अभ्यंजन के से निकालकर पीपल और मिरचादि तीक्ष्ण काम में लावे । | वीर्य द्रव्यों का चूर्ण मधु मिलाकर रिंगडे, अन्य विधि । इसके अवगाढ होने वा अत्यन्त बढनेपर क्षार वा अग्निसे दग्ध करदे । पित्तविद्रधिवच्चात्र क्रिया ___ अर्थ-उक्तरोगों में पित्तविद्रधि के समान ___ अलजी का उपाय ॥ क्रिया करना चाहिये । भामाद्यवस्थास्वलजी गंडे शोफवदाचरेत् । । अर्थ- गंडस्थल में उत्पन्न हुई अलजी . रक्तजओष्ठप्रकोपका उपाय ।। शोणितजेऽपिच। की चिकित्सा उसके बिनापके ही करनी इदमेव भवेत्कार्य कर्म चाहिये । अर्थ-रक्तन ओष्ठ प्रकोप में भी इसी शीतदंत की चिकित्सा । उक्त रीतिसे चिकित्सा करनी चाहिये । स्विन्नस्य शीतदंतस्य पाली विलिखितां कफजओष्ठ प्रकोप । ओष्ठे तु कफोत्तरे ॥ | तैलेन प्रतिसार्या च सक्षौद्रधनसैंधवैः । पाठाक्षारमधुव्योपैहतास्ने प्रातसारणम्। दाडिमत्वग्वरातार्क्ष्यकांताब्बस्थिनागरैः॥ धूमनावनगंडूषाः प्रयोज्याश्च कफच्छिदः ॥ । कबलः क्षीरिणां क्वाथैरणुतैलंच नाबनम् । For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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