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(८४०)
अष्टांगहृदय ।
अ० २२
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उक्तरोग में नस्यादि । अर्थ-कफजओष्ठ प्रकोप में जोकों द्वारा खंडोष्ठविहितंनस्यतस्य मूनि च तर्पणम् । रक्त निकालकर पाठा, जवाखार, मधु और
अर्थ-वातजनित ओष्ठ प्रकोप में खंडौ- त्रिकुटा द्वारा प्रतिसारण करे । तथा कफको ष्ठविहित नस्य तथा मस्तक पर तर्पण का नाश करनेवाले धूम, नस्य और गंडूष का प्रयोग करे ।
प्रयोग करे। पित्तजओष्टकोपमें रक्तस्राव । मेदोज ओष्ठकोपका उपाय ) पित्ताभिघातजावोष्ठी जलौकोभिरुपाचरेत् स्विनं भिन्नं विमेदरकं दहेन्मेदोजमग्निना।
अर्थ-पित्तज तथा अभिघातज ओष्ठ- प्रियंगुरोधत्रिफलामाक्षिक प्रतिसारयेत् ॥ प्रकोप में जोक लगाकर रक्त निकाल डालना
अर्थ- मेदासे उत्पन्न हुए ओष्ठप्रकोप में चाहिये ।
पसीनों से ओष्ट को स्विन्न और अस्त्र से . उक्तरोग प्रतिसारण ।
चीरकर मेदा को निकालकर अग्निसे दग्ध रोधसर्जरसक्षौद्रमधुकैः प्रतिसारणम् ।।
करे, तथा प्रयंगु, लोध, त्रिफला, और मधु . अर्थ-उक्तरोगों में लोध, राल, शहत
| द्वारा प्रतिसारण करे। और मुलहटी द्वारा प्रतिसारण करना चाहिये।
जलाद की चिकित्सा । उक्तरोगमें अभ्यंजन ।
सक्षौद्रा घर्षणं तीक्ष्णा भिन्नशुद्ध जलार्बुदे । गुडूचीयष्टिपत्तंगसिद्धमभ्यंजनेवृतम् ।।
अवगाढेऽतिवृद्ध वा क्षारोऽग्निर्वा प्रतिक्रिया अर्थ-गिलोय, मुलहटी, और लालचंदन
___ अर्थ -जलार्बुद को चीरकर क्लेदको उसमें इनसे सिद्ध किया हुआ घृत अभ्यंजन के
से निकालकर पीपल और मिरचादि तीक्ष्ण काम में लावे ।
| वीर्य द्रव्यों का चूर्ण मधु मिलाकर रिंगडे, अन्य विधि ।
इसके अवगाढ होने वा अत्यन्त बढनेपर
क्षार वा अग्निसे दग्ध करदे । पित्तविद्रधिवच्चात्र क्रिया ___ अर्थ-उक्तरोगों में पित्तविद्रधि के समान ___ अलजी का उपाय ॥ क्रिया करना चाहिये ।
भामाद्यवस्थास्वलजी गंडे शोफवदाचरेत् ।
। अर्थ- गंडस्थल में उत्पन्न हुई अलजी . रक्तजओष्ठप्रकोपका उपाय ।।
शोणितजेऽपिच। की चिकित्सा उसके बिनापके ही करनी इदमेव भवेत्कार्य कर्म
चाहिये । अर्थ-रक्तन ओष्ठ प्रकोप में भी इसी शीतदंत की चिकित्सा । उक्त रीतिसे चिकित्सा करनी चाहिये ।
स्विन्नस्य शीतदंतस्य पाली विलिखितां कफजओष्ठ प्रकोप ।
ओष्ठे तु कफोत्तरे ॥ | तैलेन प्रतिसार्या च सक्षौद्रधनसैंधवैः । पाठाक्षारमधुव्योपैहतास्ने प्रातसारणम्। दाडिमत्वग्वरातार्क्ष्यकांताब्बस्थिनागरैः॥ धूमनावनगंडूषाः प्रयोज्याश्च कफच्छिदः ॥ । कबलः क्षीरिणां क्वाथैरणुतैलंच नाबनम् ।
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