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( ९०४ )
श्यामाकुलत्थकामुलती पललसक्ताभः ॥
अर्थ ऊपर कहे हुए बल्मीकों से अति रिक्त वल्मीक में रोगी को विरेचनादि द्वारा शुद्ध करके वल्मीक में से रुधिर निकाल कर नमक, अपलतास, गिलोय, काली निशोत, कुलथी की जड, दंती और तिल का चूर्ण इन संपूर्ण द्रव्यों का लेप करै ।
अष्टांगहृदय |
पक्ववल्मीक का उपाय | पक्के तु दुष्टमांसानि गतीः सर्वाश्च शोधयेत् शस्त्रेण सम्यगनु च क्षारेण ज्वलनेन वा ॥
अर्थ- पक्क बल्मीक में बिगडे हुए मांस की संपूर्ण गतियों को शस्त्र से शोधित करके क्षारकर्मसे वा अग्निकर्मसे दग्ध करै ।
कदर का उत्कर्तनादि ॥ शस्त्र गत्कृत्य निःशेष स्नेहेन कदरं दहेत् । निरुद्धमणिवत्कार्य रुद्धपायोश्चिकित्सितम्
अर्थ = कदर रोग को जड़ से शस्त्र द्वारा काटकर स्नेह से कदर को दग्ध करे । तथा रुद्ध गुदकी चिकित्सा भी निरुद्वमणि की चिकित्सा भी करनी चाहिये ।
चिप्य की चिकित्सा | विप्यशुद्धवाजितो माणसाधेयच्छन कर्मणा अर्थ = चिप रोग में विरेचनादि शोधन क्रिया द्वारा उसकी ऊष्मा को दूर करके शस्त्र कर्मसे सिद्ध करे ।
सनिवपत्रैरालिद्
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अ० ३२
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अर्थ - अलस रोगों में दोनों पावों पर कांजी डालकर कसीस पर्बल, गोरोचन, तिल और नीम के पत्तों का लेप करे । तिलकालकादि की चिकित्सा | दहेत्तु तिलकालकान् ॥ मात्रांश्व सूर्यकांतेन झारेण यदि वाऽग्निना ।
अर्थ - तिलकालक और मात्र रोग में गरम सूर्यकांत माण, क्षार वा अग्निकर्म से दग्ध करे ||
चर्मकील और जतुमणि । तद्वदुत्कृत्य शस्त्रेण चर्मकीलजतूमणी ॥
अर्थ - चर्मकील और जतुमणि को शस्त्र से काटकर पूर्ववत दग्ध कर देना चाहिये ।
लांछनादि का उपाय । लांछनादित्रये कुर्याद्यथासनं सिराव्यधम् । लेपयेत्क्षीरपिष्टैश्च क्षीरिवृक्षत्वगंकुरैः ॥
अर्थ--लंछनादि तीन रोगों में अर्थात् लांछन, व्यंग और नीलीका रोगों में पास बाली सिराको बेधकर दूधवाले वटादि वृक्षों के त्वचा और अंकुरों को दूध में पीसकर लेप करना चाहिये |
व्यंगादि में लेपन | व्यंगेषु चार्जुनत्वग्घा मंजिष्टा वा समाक्षिका लेपः सनवमीता वा श्वेताश्वखुरजा मषी ॥
दुष्ट कुनख में कर्तव्य || दुष्ठं कुनखमध्येचं
अर्थ- दुष्ट कुनख की चिकित्सा भी चिप की तरह की जाती है। अलसक की चिकित्सा ॥
अर्थ-व्यंग आदि रोगों में अर्जुन की छाल वा मजीठ को पीसकर शहत में मिलाकर लेप करे अथवा सफेद घे। डे के की भस्म खर को नवनीत में सानकर लेप करदे ।
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चरणावल से पुनः ॥ १२॥
व्यंग नाशक लप । धान्याम्लासिकोकासीसपटोलीरोचनातिलैः रक्तचंदन मंजिष्ठा कुष्ठरो धप्रियंगवः ।
वटांकुरा मसूराश्च व्यंगना मुखकांतिदाः
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