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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अष्टांगहृदय । : (९६७) भेषजस्य पोहतानां वक्ष्यते विधिरतो लशुनस्य ॥ १११ ॥ अर्थ - जिसका देह शीत वा वायु और हिमसे दग्ध हो गया है, जिसकी हड्डियां स्तब्ध, भुग्न, कुटिल, और व्यथित हों, उन वोपहत रोगियों के लिये लहसन के सेवन की विधि यहां से आगे वर्णन करेंगे । लहंसनको श्रेष्ठत्व | रामृतचीर्येण लूनाघे पतिता गलात् । अमृतस्य कणा भूमौ ते रसोनत्वमागताः द्विजा नाश्नंति तमतो दैत्यदेहसमुद्भवम् । साक्षादमृतसंभूतेर्ग्रामणीः स रसायनम् । अर्थ - जब राहु चोरी से अमृतपान कर रहा था उस समय भगवानने सुदर्शनचक्र से उसका गला काटा था उस वक्त अमृत के कण निकल निकल कर पृथ्वी पर पडे थे उन्ही से लहसन पैदा हुआ था-दैत्यको देहसे उत्पन्न होने के कारण ब्राह्मण लोग इसे नहीं खाते हैं, परन्तु यह अमृत से उत्पन्न होने के कारण सब रसायनों में उत्तम है । लहसन के सेवनका काल ।. शीलवेलशुनं शीते वसंतेऽपि ककोल्बणः श्रमोदयेऽपि वातार्तः सदा वा प्रष्मिकीलया स्निग्ध शुद्रतनुः शीतमधुरोपस्कृताशयः : तदुलावतंसाभ्यां चर्चितानुचराजिरः । अर्थ- -लहस न हेमन्त और शिशिर ऋतुओं में सेवन करना चाहिये । कफाधिक्यवाला रोगीवसंतकाल में भी इसका सेवन करे । वातरोगी वर्षाऋतु में भी सेवन करे । अथवा स्निग्ध और शुद्धदेवाला मनुष्य शीतल और मधुर भोजन द्वारा कोष्ठ को शुद्ध करके सब ऋतुओं में इसका सेवन Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir म० ३९ कर सकता है ! इस मनुष्य के अनुचरगण छहसन के कर्णाभूषण धारण करके उसके आंगन में विचरते रहैं । लहसन का प्रयोग | तस्य कंदान वसंतांते हिमवच्छक देशजान् अपनीतत्वचो रात्रौ तीमयेन्मदिरादिभिः तत्कल्कस्वरसं प्रातः शुचितांतवपीडितम् मदिरायाः सुरूढायस्त्रिभागेन समन्वितम् मद्यस्यान्यस्यतैलस्यमस्तुनः कांजिकस्य वा तत्काल एव वा युक्तं युक्तमालोच्य मात्रया तैलसर्पिर्व सामज्जक्षीरमांसैरसैः पृथक् । . काथेन वा यथाव्याधि रसं केवलमेव वा पिबेडूषमात्र प्राकू कंठनाडीविशुद्धये । अर्थ - वसंतऋतु में उत्पन्न हुआ वा शीतल देशमें उत्पन्न हुआ मथवा शकदेश पै हुआ लहसन लेकर छीलडाले, फिर इसे मदिरा में वा बिजौरे के रस में भिगोकर क्लेदित करें । फिर इसका कल्क करके धुले हुए वस्त्र में निचोड़कर रस निकाल ले । उस रसको देश काल और पात्र के अनुसार सुरूढ मद्य वा अन्य किसी मधके तीन भाग के साथ अथवा तेल, दहीका तोड़ वा कांजी के साथ मिलाकर तेल, घी, वसा मज्जा, दूध और मांसरस इनमें से प्रत्येक के साथ योग करके व्याधिके अनुसार किसी उपयुक्त द्रव्यके काढके साथ वा केवल इसी बसको कंठकी विशुद्धिके निमित्त प्रथम गंडूष मात्र पान करे । वेदना में स्वेदनादि । प्रततं स्वेदनं चानु वेदनायां प्रशस्थते । शतिांबुसेकः सहसा धमिमूर्छाययोर्मुखे । अर्थ- वेदना में निरंतर इसका स्वेदन For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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