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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अ०३९ www. kobatirth.org उत्तरस्थान मापाडीकासमेत । करना चाहिये । वमन और मुच्छी होनेपर मुखपर शीतल जल सहसा छोटे मारना उत्तम है। शेषरस का पान | शेषपिवेत्क्रमापायेस्थिरतांगत ओजसि अर्थ - क्लांति दूर होने पर और ओजो - पदार्थ के स्थिर होनेपर बचा हुआ रसपान करना चाहिये । शीतल लेपादि । विवादपरिहाराय परं शीतानुलेपनः । धारयेत्सावुकणिका मुक्ताः कर्पूरमालिकाः । अर्थ - विदाह की शांति के निमित्त शीतल लैप, जलसे भीगी हुई मोतियों की माला, और कपूरकी माला धारण करनी चाहिये । - हसन की मात्राका परिमाण । कुडवोऽस्य परा मात्रा तदर्थं केवलस्य तु । पलं पिष्टस्य तन्मज्ज्ञः समतं प्राकू च शीलयेत् ॥ १२३ ॥ अर्थ - मदिरा सहित लहसन के रसकी पूर्ण मात्रा एक कुडव है । केवल लहसन के 1 रसकी मात्रा आधा कुडव है । लहसन के कककी परा मात्रा एक पल है । इसका अम्मास भोजन से पहिले करना चाहिये || लहसन पर पथ्य । शायादनं जीर्णे शखकुरेदुपांडुरम भुंजीत यूत्रः पयसा रसैर्वा धन्वचारिणाम् अर्थ - लहसन के पचने पर शखकुंद के सम्रान सफेद पुरानेशाली चांवलों का भात मुद्रादि यूत्र, दूध वा जांगल मांसरस के साथ भोजन करे । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ९६८ ) तृषा मद्यादि सेवन । मद्यमेकं पिवेत्तत्र प्रबंधे जलान्वितम् ॥ अमद्यपसवार नालं फलांबुपरिसिस्थिकाम् ॥ अर्थ-यासकी अधिकतामें जल मिलाकर शराब पिलानी चाहिये । जो रोगी शराब पीने का अभ्यास न रखता हो तो उसे धान्याम्ल और फलांदु की परिसिक्थिका पान कराना चाहिये । (खट्टे फलोंसे जो सट्टक विशेष तयार होता है उसे फलावुपशिसिक्थि का कहते हैं, किसी किसी देशमें इसे किट्टी भी कहते हैं । लहसन के कल्का सेवन । तत्कल्क वा समधृतं घृत पात्रे खजाहतम् । स्थितं दशाहादनीयात्तद्वद्वा बसया समम् ॥ अर्थ-लहसन के फल्क के समान घी मिलाकर घी के पात्र में रईसे मथकर रखदे । दस दिन पीछे इसका सेवन करे अथवा वसा मिलाकर पूर्वोक्त विधि से सेवन करे । लहसन सेवनका अन्य प्रकार | विकंचुकप्राज्यरसोनगर्भान सशूल्यमांसान् विविधोपदशान् । विमर्दकान्वा घृतयुक्तान् प्रकाममद्याल्लघु तुत्थंमन् ॥ १२७ ॥ अर्थ - त्वचा से रहित बहुतसा लहसन डालकर शूलपर भुने हुए मसिके साथ अनेक प्रकारकी चटनियां बनाकर अथवा घी और शुक्त मिलाकर तद्वत् अन्य खाद्य पदार्थ के साथ थोडा थोडा भोजन करे । लहसन को उत्तमता | पित्तरक्तविनिर्मुक्त समस्ताधरणावृते । शुद्धे वा विद्यते वा यौनद्रव्य लशुभास्परम् ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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