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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (८१६) अष्टांगहृदय । कहते हैं। इसकी उपेक्षा करने पर कडवे तेल | गल्लिर के लक्षण । के सदृश स्राव होने लगता है, विदारिका | पाल्यांशोफोनिलकफात्सर्वतोमिय॑था स्थिरः पकने पर बड़ी कठिनता से भरती है। यह | स्तब्धः सवर्णः कंडूमानुन्मंथोगल्लिरश्चसः सूखने पर भी कर्णशष्कुली को संकुचित ___ अर्थ-वातकफके कारण कर्णपाली में कर देती है। जो वेदनारहित, स्थिर, स्तब्ध, स्वचा के पालीशोष ॥ समान वर्णवाली, कडूयुक्त सूजन होती है, सिरास्थः कुरुते वायः पालीशोषं तदाहृयम ! उसको उन्मथ वा गल्लिर कहते हैं । ___ अर्थ-वायु शिरा में स्थित होकर कर्ण- दुःखवर्द्धन के लक्षण । पाली को सुखा देती है, इसको पालीशोष दुर्विद्धे वर्धिते कर्णे सकंड्दाहपाफरक २३ कहते हैं । श्वयथुः सन्निपातोत्थः स नानादुःखवर्धन: ___ अर्थ-कानके दुर्विद्ध होने पर वा बढने तंत्रिका के लक्षण ॥ पर उसमें जो खुजली, दाह, पाक और कृशा दृढा चं तंत्रीवत् पाली बातेन तंत्रिका वेदना से युक्त जो सन्निपातात्मक सूजन __ अथे-वायुके कारण कर्णपाली कृश, दृढ और तंत्री के समान होजाती है, इसको तंत्रि पैदा होती है, उसे दुःखन कहते हैं । लेह्या के लक्षण । का कहते हैं। परिपोट के लक्षण ।। कफास्कृमिजाः सूक्ष्मा सकंडूलेदवेदनाः। सुकुमारे चिरोत्सर्गासहसैव प्रवर्धिते । लहाख्याः पिटिकास्ता हि लिह्यः कणे शोफः सरुकूपाल्यामरुणः परिपोटवान् . पालीमुपेक्षिताः। परिपोटः स पवनात् | अर्थ-कर्णपाली में कफ, रक्त और __ अर्थ-कोमल कानको सहसा खींचकर कृमि से जो छोटी छोटी कुंसियां पैदा हो छोड देने से कानमें सूजन और वेदना हाती जाती हैं, उनको लेह्या कहते है, इनमें खु. है तथा कर्णपाली में ललाई और फटाव होता जली, क्लेद और वेदना हुआ करती है। है, इसको परिपोट रोग कहते हैं । इनकी चिकित्सा न करनेपर ये संपूर्ण कर्ण . उत्पात के लक्षण ॥ पाली को चाट जाती हैं, इससे इन्हें ले ह्या ___उत्पातः पित्तशोणितात् । कहते हैं । गुर्वाभरणभाराद्यैः श्यावो रुग्दाहपाकवान् । साध्यासाध्य विचार । श्वयथुः स्फोटपिटकारागोषालेदसंयुतः। | पिप्पलीसर्वजं शूलं विदारी कूचिकर्णकः । अर्थ--भारी आभूषणों के कारण पित्त एषामसाध्यायायैकातंत्रिकान्यांस्तुसाधयेत् और रक्त के कुपित होने से कर्णपाली में पंचविंशतिरित्युक्ताः कर्णरोगा विभागतः, वेदना, दाह, पाक, स्फोटन, श्यावता, सूजन, अर्थ-कर्णपिप्पली, सान्निपातिक कर्णपिटका, राग, ऊषा और क्लेद होता है । इस | शूल, विदारिका और कृचिकर्णक ये रोग रोग को उत्पात कहते है । | कानके रोगों में असाध्य हैं । एक संत्रिका For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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