SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 636
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० ७ चिकित्सितस्थान भाषाटीकासभेत । (५३९) p मद्यपान के पीछे का कर्म । | और आसवरूपधारी द्रवीभूत पद्मराग मणि पत्वैिवं चषकद्वय परिजन सन्मान्य सर्व ततो के सदृश मद्यको पीकर सोजाना चाहिये गत्वा हारभुवं पुरः सुभिषजो भुजीत- और रतिक्रिया के पश्चात् फिर मद्यपान भूयोऽत्र च ।। मांसापूपघृताकादिहरितैर्युक्तं ससौवर्चले- करना उचेत नहींहै क्योंकि रतिके परिश्रमसे द्विस्त्रिी निाश वाल्पमेव वनिता- थोडा मद्य पीनेपर भी नशा आजाताहै । संचालनार्थ पिबेत् ॥ ८७ ॥ | यह मद्य ओजःपदार्थ के क्षयका हेतुहै, इस अर्थ-उक्तरीति से दो प्याले मद्य के लिये ओजको क्षय करनेवाला मद्य न पीकर पीकर संपूर्ण परिजनों का सन्मान करके कामज क्षयको दूर करने के निमित्त सो भोजनालय में जाकर वैद्यके सन्मुख मांस, जाना चाहिये । मालपुआ, घृत, अदरख आदि के साथ ___ मद्यपान की देवस्पृहणीयता । आहार करता हुआ संचल नमक के साथ इत्थम् युत्तया पिवेन्मान त्रिवर्गाद्विहीयते । दो तीन प्याले पान करे और रात्रिमें का- | असारसंसारसुखं परमेवाधिगच्छति' ॥ मिनी गणों को प्रसन्न करने के निमित्त ऐश्वर्यस्योपभोगोऽयं स्पृहणीयःसुरैरपि । थोडा मद्यपान करे । ___अर्थ-उक्त रीतिसे जो मनुष्ययुक्तिपूर्वक मद्यकी प्रशंसा । मद्यपान करताहै वह धर्म, अर्थ, और रहास दयितामंके कृत्वा भुजांतरपीडना- कामरूप त्रिवर्ग से हीन नहीं होताहै और त्पुलकिततनुं जातवेदां सकंपपयोधराम् । इस असार संसार के परम सुखको प्राप्त यदि सरभसं सीधूदारं न पाययते कृती होजाताहै । ऐसा मद्यपान देवताओं द्वारा किमनुभवति क्लेशप्रायं ततो ग्रहतंत्रताम् ॥ अर्थ-प्रवीण मनुष्य एकान्त स्थानम स्पृहणीय और ऐश्वर्य का उपयोगहै ॥ दोनों भुजाओं से पीडित की हुई पुलकित । व्यवस्थापूर्वक मद्यपान | शरीरवाली, पसीनों के युक्त, कंपित कुचों अन्यथा हि विपत्सु स्यात्पश्चात्ताधनं. धनम् ॥१७॥ वाली स्त्रीको गोदमें बैठाकर एक चषक मद्य उपभोगेन रहितो भोगवानिति निद्यते । भी पान नहीं करताहै तो गृहस्थरूप इस निर्मितोऽतिकोऽयं विधिनानिधिपालकः भारी बोझके क्लेश को सहनेसे क्या लाभहै। | तस्माद्यवस्थया पानं पानस्य सततं हितम् । जित्वा विषयलुब्धानामिद्रियाणां स्वतंत्रताम् मद्यपानके पीछे शयन । अर्थ धन के होते जो मनुष्य मद्यका घरतनुवक्त्रसंगतिसुगंधितरं सरकम् | उपभोग नहीं करताहै तो विपतकालके दुतमिव पद्मरागमणिमासवरूपधरम् । भवति रतिश्रमेण च मदः पिवतोऽल्पमपि उपस्थित होनेपर उस धनका अनुताप उसे क्षयमतनुमोजसः परिहरन्स शयीत परम्। ईंधन की तरह जलाताहै मद्यके सिवाय अन्य . अर्थ-अपनी प्राणप्यारी के सुंदर शरीर भोगों को भोगनेवाला व्यक्ति निंदाका आस्प और मुखके स्पर्श से अधिकतर सुगंधिवाला । द होताहै उसको तो ब्रह्माने केवल धनकी For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy