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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org अष्टांगहृदय | ( ५४० ] रक्षा के लिये ही रचा है । इसलिये विषयलोलुप इंद्रियों की स्वाधीनता को जीतकर ब्यवस्थापूर्वक मद्यपान करना हित है । धनी लोगों की विधि | विर्विसुमतामेष भविष्यद्वसवस्तु ये । यथोपपत्तिमद्यं पातव्यं मात्रया हितं । अर्थ-धनवान् मनुष्योंके लिये मद्यपान की यही विधिहै । परंतु जो लोग धनी होना चाहते हैं वे भी अपने उपार्जित धनमें से युक्तिपूर्वक और मात्रापूर्वक पान करना उचित है । मद्यपान से विरति । यावत्दृष्टेर्न संभ्रांतिर्यावन्न क्षोभते मनः । तावदेव विरतव्यं मद्यादात्मवता सदा ९५ ॥ अर्थ-दृष्टिमें भ्रान्ति और मनमें व्याकु लता होनेसे पाहिलेही बुद्धिमान को उचित है कि मद्य पीना छोडदे | वाताधिक्य में मद्यपान । अभ्यंगोद्वर्तन स्रानवा सधूपानुलेपनैः । स्निग्धोष्णैर्भावितश्चान्नैःपानं वातोत्तरः पिवेत् ॥ ९६ ॥ अर्थ-वातकी अधिकता वाले मनुष्यको उचित है कि अभ्यंग, उद्वर्तन, स्नान, सुंदर वस्त्र धारण करना, धूपग्रहण, चंदना दि लेपन तथा स्निग्धोष्ण भोजन द्वारा मद्यपान करे । पित्ताधिक्य में मद्यपान । शीतोपचारैर्विविधैर्मधुरास्निग्धशीतलैः । पैत्तिको भावतश्चान्नैः पिवेन्मद्यं न सीदति अर्थ - पित्त की अधिकता वाले मनुष्य के चन्दनादि अनुलेपन प्रभृति शीतलकिया तथा मधुर स्निग्ध और शीतवीर्य अन्न भो. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० ७ जन द्वारा परितृप्त होनेपर मद्यपान करने से देह में शिथिलता नहीं होती है । कफाधिक्य में मद्यपान | उपचारैरैशिशिरैर्यवगोधूमभुक् पिबेत् । लेष्मिको जांगलैर्मासमद्यं मरिचकैः सह ॥ अर्थ-कफकी अधिकता वाला मनुष्य गरम उपचारों को करता हुआ कालीमिरच से संस्कृत जांगल मांस के साथ मद्यपान करे तथा गेंहूं और जौकी रोटी खाय । वातादि में मद्यविधि | तत्र बाते हितं मद्यं प्रायः पैष्टिकगौडिक म् पिते सांभ मधु कफे माद्वकारि माधवम् अर्थ - वातकी अधिकतामें प्रायः पैष्टिक और गौडिक मद्य, पित्तकी अधिकतामें जल और मधुमिश्रित मद्य तथा कफकी अधिकता में मार्दीक, अरिष्ट और माधव मद्यको पानकरे मद्यपानका काल | प्राक् पिवेत् श्लैष्मिको मद्यं भुक्तस्योपरि पैत्तिकः वातिस्तु पिवेन्मध्ये समदोषो यथेच्छया । अर्थ - कफाधिक्य बाला भोजन करने से पहिले, पित्ताधिक्य वाला भोजन करने के पीछे, वाताधिक्य वाला भोजन के बीच में और समदोष वाला इच्छानुसार जब चाहे तब मद्यपान करे | मदमें वातपित्तनाशनी चिकित्सा | " मदेषु वातपित्तघ्नं प्रायो मूर्छासु चेप्यते । सर्वत्राऽपि विशेषेण पित्तमेबोपलक्षयेत् ॥ अर्थ - मद और मूर्छारोग में वातपित्त नाशक चिकित्सा करे, परंतु मद वा मूर्छा सब जगह में पित्तपर दृष्टि रखनी चाहिये । For Private And Personal Use Only उक्तरोगों में उपचार | शीताः प्रदेहा मणयः सेका व्यजनमारुताः । सिताद्राक्षेक्षुखर्जूरकाशमयः स्व रसाः पयः ॥
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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