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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir म. ३६ उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत । (९३७) अष्टांग औषधको गोमूत्र में पीसकर | भावितं सर्पदष्टानां पाने नस्यांजने हितम् ॥ प्रयोग करने से गुहेरे का विषदर होजाताहै। अर्थ-सिरस के फूल के रस में सफेद मि___राजिमान् सपों की दवा। रचों को सात दिन तक भावना देकर सर्प कटु कातिविषाकुष्टगृहधूमहरेणुकः॥६॥ से काटे हुए रोगीको पान, नस्य और अंजन सझौद्रव्योषतगरा ध्नति राजीमतां विषम् ।। द्वारा देना हित है। ___ अर्थ-कुटकी, अतीस, कूठ, गृहधूम, तक्षकदष्ट पर पान । हरेणु, मधु, त्रिकुटा, तार । इन सब द्रव्यों , द्विपलं नतकुष्टाभ्यां घृतक्षौद्रचतुष्पलम् । का सेवन करने से राजिमान् सपोंका विष | अपि तक्षकदष्टानां पानमेतत्सुखप्रदम् ॥ दूर होजाता है। ___अर्थ-तगर, कूठ दो दो पल, घी और . काडचित्रा का दंश । मधु चार चार पल इन से तयार की हुई निखनेकांडवित्राया देशं यामद्वयं भुवि। औषध तक्षकके काटे हुए पर हित है। उद्धत्य प्रथितं सर्पिर्धान्यमृद्भ्यांप्रलेपयत्। दीकर के प्रथमवेग की चिकित्सा। पिवेत्पुराणं च घृतं वराचूर्णावचूर्णितम् ॥ अथ दर्वीकृतां येगे पूर्व विसाव्य शोणितम् । जीणे विरिक्त भुजीत यवान्नं सूपसंस्कृतम्। | अगदं मधुसर्पिा संयुक्त त्वरितं पिवेत् ॥ , अर्थ-कांडचित्रानामक सर्पके काटने पर ___ अर्थ-दर्वीकर के प्रथम वेग में रुधिर काटे हुए स्थान को दोपहर तक धरती में को निकालकर मधु और घृत से युक्त औषध गाढ दे । पीछे निकाल कर घी और धान्य. बहुत शीघ्र देनी चाहिये। मृतिका से लेप करे और त्रिफला का चूर्ण द्वितीयवेग की चिकित्सा । मिलाकर पुराना घी पान करावै । इसके द्वितीये वमनं कृत्वा तद्वदेवागदं पिवेत् । पचजाने पर विरेचन होजाने के पीछे दाल ___ अर्थ-दर्वीकरके दूसरे वेगमें वमन कराके से संस्कार किया हुआ जौके अन्नका पथ्य फिर तद्वत् औषध का प्रयोग करे। . ___ तृतीयादि वेगकी चिकित्सा ।। - व्यंतग्दष्ट की चिकित्सा । विषापहैः प्रयुंजीत तृतीयेऽजननावने ॥ करवीराककुसुममूललांगलिकाकणाः ॥ पिवेश्चतुर्थे पूर्वोक्तां यवागू वमने कृते। कल्कयेदारनालेन पाठामरिचसंयुताः। षष्ठपंचमयोः शीतैर्दिग्धं सित्तमभीक्ष्णशः ॥ एष व्यंतरदष्टानामगदः सार्वकार्मिकः ॥ पाययेद्वमनं तीक्ष्णं यवागू च विषापाहैः । " अर्थ-कनेर के फूल, आककी जड, अगदं सप्तमे तीक्ष्णं युज्यादजननस्ययोः॥ कल्हारी, पीपल, पाठा और कालीमिरच इन कृत्वावगाढं शत्रण मूर्ति काफपदं ततः। सबको कांजी के साथ पीसले । यह औषध मांस सरुधिरं तस्य चर्म वा तत्र निक्षिपेत् ॥ अर्थ-दीकरके तीसरे वेगमें विषनाशक व्यंसरनामक सों के विष दूर करने में अंजन और नस्य का प्रयोग करे । चौथे परमोपयोगी है। वेगमें वमन कराके पूर्वोक्त यवागू पान करावे भुजंगदष्ट पर पानादि । शिरीषपुष्पस्वरसे सप्ताह मरिच सितम्। पांचवें और छटे वेग अधिकतर शीतल लेप ११८ For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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