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अष्टांगहृदय ।
अर्थ-कफकी खांसी में वक्षःस्थल में वेद
ना कम होती है । मूर्द्धामें स्तिमिता, हृदय में
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भारापन, कंठमें कफकी व्हिसावट, देहमें शि थिलता, पीनस, वमन, अरुचि और रोमहर्ष होते हैं । तथा गाढा, चिकना और सफेद कफ निकलता है |
(३६२ ]
दर्द, सुई छिदने के समान तीव्र
पर्व
कफ की खांसी का निरूपण । कफादुरोऽल्पम्मूर्धिन हृदयं स्तिमितं गुरु । 'कण्डोपलेपः सदनं पीनसच्छर्धरोचकाः २६ रोमहर्षो घनस्निग्धश्वेतश्लेष्म प्रवर्तनम् ।
द, ज्वर, श्वास, तृषा, स्वरविकृति, कंपन, कंठमें कबूतरकी सी कूजन और पसली में
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बीर्य,
दर्द, ये सब उपद्रव होते हैं । और कमसे सच, पाचनशक्ति, बल और वर्ण
कम होते चले जाते हैं । रोगी बहुत क्षीण हो जाता है, उसके मूत्र के साथ रुधिर आने लगता है तथा पीठ और कमर में वेदना होने लगती है ।
क्षतकास का निदानादि । युद्धाद्यैःसाहसैस्तैस्तैः सेवितैरयथाबलम् ॥ उरस्यतः क्षते वायुः पित्तेनानुगतो बली । कुपितः कुरुते कास कफं तेन सशोणितम् ॥ पित्तं श्यामं च शुष्कं च प्रथितं कुपितं वहु । ष्ठीवेत्कण्ठेन रुजता विभिन्नेनेव घोरसा ॥ सूचीभिरिव तीक्ष्णाभिस्तुद्यमानेन शूलिना । पर्वभेदज्वरश्वास तृष्णावै स्वर्य कंपवान् ६० ॥ पारावत इवाकूजन पार्श्वशूली ततोऽस्य च क्रमाद्वीर्य रुचिः पक्तिर्बलं वर्णश्च हीयते ३१ क्षीणस्य सासृग्भूत्रत्वं स्याच्च पृष्ठकटीग्रहः
अर्थ - कठिन धनुषका आकर्षण, हाथी, घोडे आदि का पकडना, उच्चभाषण, भारी बोझ चलना, वेगवती नदीके स्रोतकी ओर 'तैरना इत्यादि अपनी शक्ति से बाहर के काम करने से वक्षःस्थल के भीतर घाव होजाता है और बलवान् वायु कुपित होकर और पित्त को अपने साथ लेकर खांसीको उत्पन्न कर सा है । फिर पीला, काला, सूखा हुआ, I गांउदार दुर्गंधित बहुत साफ रुधिर सहित खखार के साथ निकलता है । तथा कंठमें ती वेदना, वक्षःस्थलमें विदीर्ण होनेका सा
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अ० ३
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शूल,
क्षतकास का लक्षण |
बायुप्रधानाः कुपिता धातवो राजयक्ष्मणः ॥ कुर्वति यक्ष्मायतनैः कासं ष्ठीवेत्कफं ततः । पूतिपूयोपमं पीतं विस्त्रं हरित लोहितम् ३ लुञ्चेते इव पार्श्वे च हृदयं पततीव च । अकस्मादुष्णशीतेच्छा बद्वाशित्वं वलक्षयः स्निग्धप्रसन्नवक्त्रत्वं श्रीमद्दशननेत्रता । ततोऽस्य क्षयरूपाणि सर्वाण्याविर्भवति च ।
अर्थ - राजयक्ष्मावाले रोगीके यक्ष्मानिदा नोक्त साहसादि कर्म करने से वात प्रधान दोष कुपित होकर खांसी उत्पन्न करते हैं, फिर सडीहुई राधके सदृश, पीला, दुर्गंधित, हरा वा लाल कफ निकलने लगता है, इस रोगमें ऐसा मालूम होने लगता है कि मानों रोगी की पसली निकली पडती है औरं हृदय गिरा पडता है, निष्कारण ही कभी ठंडी और कभी गरम वस्तुकी इच्छा होती है, बहुत भोजन खानेपर भी वलक्षीण होता जाता है । इसका मुख चिकना और प्रफुल्लित रहता है, दांत और नेत्र चमकीले रहते हैं, पीछे क्षय के सबरूप उत्पन्न होजाते हैं । क्षयकफसे देहकानाश ।
इत्येष क्षयजः कासः क्षीणानां देहनाशनः ।