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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत । कल्कि ते स्तमदनकृष्णा मधुकवत्सकैः । बस्ति मृदुवृताभ्यां च पीडयज्ज्वरनाशनम् ॥ अर्थ - परवल, नीम के पत्ते, कुटकी, अमलतास, शालपर्णी, खरैटी, गोखरू, मेनफल, खस, नेत्रवाला, इनका काढा करले तथा दूधसे आधा पानी डालकर औटावै जव दूध रहजाय तत्र उक्त काढेको मिलाले वे । अथवा मोथा, मेनफल, पीपल, मुलहटी और कुडाकी छाल इनके कल्कके साथ अथवा शहत और घृत मिलाकर वास्तिका प्रयोग किया जाय तो ज्वर जाता रहता है । अन्य वस्ति ॥ (४६७) ना जल इनसब को इकठ्ठा करके अग्निपर पंकावै, इनकी अनुवासन वस्ति ज्वर में देनी चाहिये । जिस ज्यर और वातादि दोषों में जो स्नेह उपयोगी होता है बही उसमें मिंलाना चाहिये । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अन्य वस्ति । ये च सिद्धिषु वक्ष्यंते बस्तयो ज्वरनाशनाः ॥ अर्थ - सिद्धिस्थान के वस्तिकल्पनाध्याय में जो जो ज्वरनाशक बस्तिकही गई हैं वे सव देनी चाहिये । विरेचन नस्य | शिरोरुग्गौरवश्लेष्म हरामंद्रियवोधनम् । जीर्णज्वरे रुचिकरं दद्यान्नस्य विरेचनम् ॥ हिक शून्यशिरसो दाहार्ते पित्तनाशनम् । अर्थ - जीर्णज्वर में विरेचन नस्य देना चाहिये, इससे सिरका दर्द, भारापन, और श्लेष्मा जाता रहता है | नेत्रादि इन्द्रियों में प्रफुल्लता होती है और भोजन में रुचि वढती है । जिसका मस्तक खाली होगया है उसे स्नेहवस्ति और सिर में दाहवालेको पितनाशक वस्ति देना चाहिये । धूमादि प्रयोग | धूमगंडूषकवलान् यथादोषं च कल्पयेत् ॥ प्रतिश्यायास्यवैरस्यशिरः कंठामयापहान अर्थ- दोष के अनुसार ज्वर में धूमपान, गंडूषधारण और कवलग्रह की कल्पना करनी चाहिये, जिससे प्रतिश्याय, मुखकी विरसता, शिरोरोग और कंठरोग नष्ट हो । चतस्रः पर्णिनीर्यष्टफलोशीरनृपद्रुमान् । काथयेत्कल्कयेद्यष्टीशताहा फलिनीफलम् ॥ मुस्तं च बस्तिः सगुडक्षौद्रसर्पिर्ज्वरापहः । अर्थ - चारों पर्णी (मुद्रपर्णी, मांत्रपर्णी, शालपर्णी, पृष्टिपर्णी), मुलहटी, मेनफल, ख़स और अमलतास, इनका काढा करे, तथा मुलहटी, सौंफ, प्रियंगु, त्रिफला, मेनफल और नागरमोथा इनका कल्क वनावे उसमें गुड, राहत और वृत मिलाकर बस्ति देने से ज्वर जाता रहता है । ज्वर में अनुवासन ॥ जीवंती मदनं मेदां पिप्पलीं मधुकं वचाम् ॥ ऋद्धिं रास्त्रां बलां चिल्वं शतपुष्पां शतावरीम् पिष्ट्वा क्षीरं जलं सर्पिस्तलं चैकत्र साचितम् ज्वरेऽनुवासनं दद्याद्यथा स्नेहं यथामलम् । अर्थ - जीवंती, मेनफल, मेदा, पीपल, मुलहटी, वच, ऋद्धि, रास्ना, खरैटी, बेलगिरी, सौंफ, तितावर, इनसब द्रव्यें से चतुर्थाश तैलादि स्नेह मिलाकर जल में घोट अरुचिनाशक द्रव्य । ढाढे तथा स्नेहके समान दूध और चारगु. | अरुची मातुलुंगस्य केसरं साज्यसैंधवम् ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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