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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (३२२) अष्टांगहृदय । धन जन बांधवादि पहिले आनन्दोत्पादक थे । घाससो रंजनं पूति वेगवञ्चातिभूरि च।७५। वही जिसको बुरे लगने लगते हैं उसे मृतः वृदं पांडुज्वरच्छर्दिकासशोफातिसारिणम् । प्राय समझना चाहिये । ____ अर्थ-रक्तपित्त रोगमें जो रक्त अत्यन्त सहसा विकारके चिन्ह ॥ लाल, काला वा इन्द्रधनुषके समान अथात् सहसा जायते यस्य विकारः सर्वलक्षणः ॥ अनेक रंगोंसे युक्त हो, तथा रक्तपित्त रोगी निवर्तते वा सहसा सहसा स विनश्यति । को दिखाई देनेवाली वस्तुओं में तांबे वा ह अर्थ-जिस मनुष्यके बिना कारण ही सं- लदी का सा रंग देखे अथवा हरा वा लाल पूर्ण लक्षणोंसे युक्त ज्वरादि व्याधि उत्पन्न | देखै । अथवा रक्तपित्त का रक्त सब रोमकूपों हो जाती है अथवा ऐसीही सर्बलक्षणों से यु- से निकलने लगे अथवा कंठ, मुख वा हृदय त व्याधि सहसा शांत हो जाती हैं वह शी- में एक साथ लिप्त होजाय । रक्तपित्तका रक्त घ्र ही मरजाता है । यदि वस्त्रमें लगजाता है तौ धौनेसे उसका ज्वरविकारमें चिन्ह ॥ दाग नहीं जाता है और जो दुर्गधियुक्त बडे ज्वरो निहंति बलवान गंभीरो दैर्धरात्रिकः । बेगसे और बहुत निकलता है तो ऐसा रोगी स प्रलापभ्रमश्वासक्षीणं शूनं हतानलम् । मर जाता है, वृद्ध रक्तपित्त पांडुरोग, ज्वर, अक्षामं सक्तवचनं रक्ताक्षं हृदि शूलिनम् ॥ | संशुष्ककासःपूर्वान्हे योऽपरान्हेऽपिवा भवेत वमन,खांसी, सूजन और अतिसार वाले रोबलमांसविहीनस्य श्लेष्मकाससमान्वतः ॥ गी को मार डालता है। अर्थ-जो ज्वर बलवान् हेतुओंसे संयुक्त श्वासकासमें चिन्ह ॥ . होता है । मज्जादि धातुके आश्रित होता है। | कासश्वासौज्वरच्छदितृष्णातीसारशोफिनम् वा जो दीर्घकालानुबंधी होता है तथा जो | अर्थ-खांसी और श्वास ये रोग ज्वर, प्रलाप, भ्रम और श्वाससे युक्त होता है यह | वमन, तृषा, अतीसार सूजन इन रोगोंवाले ध्वर, धातुक्षीण, सूजनयुक्त, मन्दाग्नियुक्त, | मनुष्यको मार डालते हैं। निर्बल, सक्तवचन, लालनेत्रवाले तथा हृत्शू राज्यक्ष्माके चिन्ह ॥ लरोगी को मार डालता है। जिस ज्वरमें यक्ष्मा पार्श्वरुजानाहरक्तच्छधसतापिनम् । __ अर्थ-राजयक्ष्मामें पसलीका दर्द आदुपहर से पहिले वा दुपहरसे पीछे सूखी । - खांसी उठती हो वा कफ और खांसी से | | नाह, रक्तकीवमन, और कंधोंमें जलन होतो रोगी मरजाता है। संयुक्त ज्वर हो वह बल और मांसहीन रोगी वमनसे मृत्युका लक्षण ॥ को मार डालता है । छदिवेगवतीमूत्रशकृद्गांधः सचंद्रिका । ७७। रक्तपित्तकी विकृतिके चिन्ह ॥ सास्त्रविद्पूयरक्कासश्वासवत्यनुवांगणी । रक्तपित्त भृशं रक्तं कृष्णमिंद्रधनुःप्रभम् । ___ अर्थ-जो वमन बडे वेगसे होती है और ताम्रहारिद्रहरितं रूपं रक्तं प्रेदर्शयेत् ॥७॥ जिसमें मूत्र वा विष्टाकी सी दुर्गंध आती है रोमकूपप्रविसतं कंठास्य हृदये सृजत् । तथा जो मोरपुच्छ की तरह अनेक वासे For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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