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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत । दिव्यंकौपंशृतंचांभोभोजनंत्वतिदुर्दिने॥४६॥ तप्तानांसंचितंवृष्टौपित्तंशरदिकुप्यति ॥४९॥ व्यक्ताम्ललवणस्नेहं संशुष्कं क्षौद्रवल्लघु। तज्जयाय घृतं तिक्तं विरेको रक्तमोक्षणम् । ____ अर्थ-वमन विरेचनादि से शरीर को । अर्थ-वर्षाऋतुका शीत मनुष्यों के शरीर शुद्ध करके निरूह वस्तिका प्रयोग करै।। के सात्म्य होजाताहै और शरत्कालमें एकदम जौ, गेंहूं आदि पुराने अन्न, घी, कालीमि- सूर्यकी किरणोंसे संतप्त होजाताहै । इसलि. रच, सोंठ डाल कर तयार किए हुए मांसरस, ये वर्षाऋतु में संचित हुआ पित्त शरतकाल बनके पशु पक्षियों का मांस, मूंग और में प्रकुपित होजाता है । इसको शमन करने दाडिम आदिका यूष, पुराना द्राक्षाका मद्य के लिये तत्काल शास्त्र क्त तिक्त घृतका सेवन और अरिष्ट, संचल नमक और पंचकोल विरेचन तथा रक्तमोक्षण ( फस्द खुलवाना) ( पीपल, पीपलामूल, चव्य, चीता, सोंठ) उचित है । डालकर दही, वर्षाका जल, कुआका जल, शरद में भोजन । तथा औटायाहुआ, जल पीना चाहिये । अ | तिक्तंस्वादुकषायंच क्षुधितोन्नंभजेल्लघु॥५०॥ त्यन्त वर्षा और बादलके दिन बहुत थोडा शालिमुद्रसिताधात्रीपटोलमधुजांगलम् । अर्थ-इस ऋतुमें अच्छी तरह भूख लगने नमक, और घी मिलाकर मधुमिश्रित हलका पर तिक्त मधुर और कषाय रस युक्त हलका और सूखा भोजन करना उचित है । अन्न, शाठीचांवल, मंग, चीनी, आंवला, बर्षा में अन्य विधि । पटोल, मधु और वन के पशुपक्षियों का अपादचारांसुरभिः सततंधूपितांवरः ॥४७॥ मांस सेवन करना उचित है। हर्म्यपृष्ठे वसेद्वाष्पशीतशीकरवर्जिते। अर्थ-वर्षाऋतु में नंगे पांव घरसे बाहर हंसोदक! तप्तंतप्तांशुकिरणैःशीतंशीतांशुरश्मिभिः॥५१॥ न निकले, सुगंधित द्रव्योंका व्यवहार करता समतादप्यहोरात्रमगस्त्योदय निर्विषम् । रहै । निरंतर धूपदिया हुआ वस्त्र धारण कर | शुचिहंसोदकंनाम निर्मलंमलजिजलम् ॥५२॥ तारहै । भूवाष्प आई और जलकणों नाभिष्यंदिनवा रूक्षं पानादिष्वमृतोपमम् । से वर्जित स्थानमें निवास करै ।। ___ अर्थ-जो जल दिनभर सूर्यकी किरणों __वर्षा में अकर्तव्य कर्म । से तपता है और रात्रिमें चन्द्रमा की शांत. नदीजलोथमन्या स्वप्नायासातपांस्त्यजेत ल किरणों से ठंडा होता है तथा अगस्त्य अर्थ-नदीका जल, उदमन्थ, दिनमें सौ | नक्षत्रके उदयसे निर्विष होजाता है उसे न, व्यायाम और धूपका सेवन छोडदेना चा आयुर्वेद ग्रन्थकार हंसोदक कहते हैं । यह हिये । ( जलमें आलोडित घी मिलहुए स- जल पवित्र, निर्मल, वातादि दोषनाशक तूको उदमन्थ कहते हैं। अनभिष्यन्दि (श्लेष्मा का उत्पन्न न करने शरदचर्या । वाला ) और रूक्षतारहित होता है । पीने वर्षाशीतोधितांगानां सहसैवार्क रश्मिभिः।। में यह जल अमृत के तुल्य होता है। For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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