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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अष्टांगहृदये। शरद का सायंकाला तल अन्नपान गुणकारी है तथा हेमन्त शि. चंदनोशीरकर्पूरमुक्तास्त्रग्वसनोज्ज्वलः॥५३॥ | शिर वसंत और वर्षा ऋतुओं में उष्ण अन्न सौधेषु सौधधवलां चंद्रिका रजनमुखे। पानका सेवन लाभदायक होताहै । ___ अर्थ-सांयकालके समय चन्दन, उशीर नित्यं सर्वरसाभ्यासः स्वस्वाधिक्यमृतावृतौ (खस ) तथा कपूरादि सुगंधित द्रव्यों का । अर्थ-छा रसोंके सेवनका अभ्यास सदा लेपन करै, मातियोंका हार तथा सफेद वस्त्र रखना चाहिये परन्तु जिस ऋतुमें जिस रस धारण करै । और महलके ऊपर चन्द्रमाके का विधान किया गयाहै उस रसको उस ऋतु समान उज्वल चांदनीमें बैठे ( सायंकाल पीछे में विशेष रूपसे सेवन करना उचित है । न बैठे क्योंकि जाड़ा पढ़ने लगताहै ) | ऐसा करना उचित नहीं है कि जिस ऋतुमें शरद में त्पाज्य । जिसका विधान कियाहै उसी रसको सेवन "तुषारक्षारसौहित्यदधितैलवसातपान्॥५४॥ तीक्ष्णमद्यदिवास्वमपुरोवातान् परित्यजेत् । करता रहै अन्य रसोंको सर्वथा त्यागदे । अर्थ-शरत्कालमें ओस, जवाखारादि ऋतुसंधि। क्षार द्रव्य, पेट भरकर भोजन, दही, तेल, ऋत्योरेत्यादिसप्ताहावृतुसंधिरिति स्मृतः । तत्र पूर्वो विधिस्त्याज्या सेवनीयोऽपराक्रमात् चर्वी, धूप, तीक्ष्णमय दिनमें सोना तथा पू साना तथा असात्म्यजा हिरोगाः स्युःसहसात्यागशीलनात् दिशाका पवन इन सब बातोंका सेवनकरे। अर्थ-दोनों ऋतओंके वीच वाले पन्द्रह ऋतुचर्या का संक्षिप्त वर्णन दिनको ऋतुसंधि कहतहैं अर्थात् पहिली शीतेवर्षासुचाद्यान्त्रीवसंतेऽत्यानसांभज र ऋतुका पिछला सप्ताह और आने वाली ऋतु स्वादु निदाघे शरदि स्वादुतिक्तकषायकान् । __ अर्थ-अव संक्षेपस ऋतुचर्या करतेहैं: का पहिला सप्ताह ये दोनों सप्ताह ऋतुसंशांत और वर्षा कालमें मधुर अम्ल और ल | धि कहलातेहैं । इस समय में क्रम क्रम से वण रसका सेवन करै । बसन्त ऋतु में पि पहिली ऋतुकी कही हुई विधिका त्याग और छले तीन कटु, तिक्त और कषाय रसका से. आने वाली ऋतुकी कही हुई दिनचर्याका वन करै । ग्रीष्ममें मधुर रस, और शरत्काल अभ्यास करता रहै । कारण यह है कि पूर्व से मधुर, तिक्त और कषाय रसका सेवनकरै। अभ्यस्त बिधिको सहसा त्याग करनेसे और संक्षिप्त भोजन विधि । अनभ्यास विधिका सहसा सेवन करनेसे अशरद्धसंतयो सशं शीतधर्मघनान्तयोः॥५६॥ साम्यजनित रोग उत्पन्न होजाते हैं। इस अन्नपानं समासेन विपरीतमतोऽन्यदा। लिये अभ्यस्त विधिका त्याग और अनभ्यस्त अर्थ-शरद और वसंत ऋतुमें रूक्ष अ- का सेवन कमक्रम से करना चाहिये । नपान सेवनकर तथा अन्य हेमन्त, शिशिर । इति श्री अष्टांगहृदये भाषाटीकायां वर्षा और ग्रीष्म ऋतुमें स्निग्ध अन्नपान का सेवन गुणकारी है । ग्रीष्म और शरदमें शी- तृतीऽध्यायः ॥३॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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