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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अ० ३ www. kobatirth.org निदानस्थान भाषाटीकासमेत । | कुपितं रोमकूपैश्च समस्तैस्तत्प्रवर्तते ।. अर्थ-रक्तपित्त तीन प्रकारका होता है, ऊर्ध्वगामी, अधोगामी और उभयमार्ग गामी इनमें से कुपित हुआ ऊर्ध्वगामी रक्तपित्त दोनों नाक, कान दोनों आंख और मुख इन सात द्वारों से निकलने लगता है, धोगामी कुपित रक्त मेद्र, योनि और गुदा इन तीन द्वारों से निकलता है और उभय मार्गगामी संपूर्ण रोम कूपों से तथा उक्त दस द्वार से निकलने लगता है । अ ऊर्ध्वगामी रक्तपित्त के कर्तव्य | ऊर्ध्वं साध्यं कफाद्यस्मात्तद्विरेचनसाधनम् ॥ बहुवौषधं च पित्तस्य बिरेको हि वरौषधम् । अनुबंधी कफो यश्च तत्र तस्यापि शुद्धिकृत् कषायाः स्वादवोऽप्यस्य विशुद्धश्लेष्मणोहिताः । किमु तिताः कषाया वा ये निसर्गात्कफापहाः। अर्थ - कफकी अधिकता से ऊर्धगामी रक्तपित्त उत्पन्न होता है इसलिये इसका साधन बिरेचन है । पित्त की बहुत सी 1 औषध हैं परंतु विरेचन सबमें प्रधान है तथा रक्तपित्त का अनुबंधी कफ होता है और heat औषध भी विरेचन है, इनसब हेतुओं से ऊर्ध्वगामी रक्तपित्त साध्य होता है । स्वरस, कल्क, शृतशीत फांटाख्य कषाय मधुररस युक्त होने पर भी व्याधिकी प्रतिपक्षता के कारण विशुद्ध ( वातादि से अदूषित ) कफ वाले रोगी के लिये हित"कारी होते हैं । फिर तिक्तकषाय जो स्वाभाविक ही कफका नाश करनेवाले हैं ये तो अत्यंत ही हितकर होते हैं । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ३५९ ] अधोगामी रक्तपित्त को याप्यत्व । अधोयाप्यं बलाद्यस्मात्तत्प्रच्छईनसाधनम् १ अस्पौषधं च पित्तस्य वमनं म वरौषधम् १ अनुबंधी चलो यश्व शांतयेऽपि न तस्य तत् कषायाश्च हितास्तस्य मधुरा एव केवलम् ॥ अर्थ - अधोगामी रक्तपित्त वात से उत्पन्न होने के कारण याप्यहोता है । अधोगामी रक्तपित्तकी चिकित्सा वमन होती है। पित्तकी चिकित्सा कम होती है इसलिये पित्त में वमन कराना उत्तम औषध नहीं है । इस में रक्तपित्त का अनुबंधी वायु होता है वमन इस अनुबंधी वायुका शमन नहीं करती है । रक्त पित्त में केवल स्वरसादि मधुर कषाय हितकारी होते हैं । तिक्तादि कषाय वमन के प्रकोपक होने के कारण हितकारी नहीं होते ॥ उभयगामी रक्त पित्त को असाध्यत्व । कफमारुतसंसृष्टम साभ्यमुभयादनम् । अशक्यप्रतिलोम्यत्वादभावादौषधस्य च ॥ अर्थ - कफ और वायु दोनों से संसृष्ट होने के कारण रक्त पित्त ऊपर और नीचे दोनों ओर प्रवृत होता है, यह उभयमार्ग|गामी रक्तपित्त असाध्य होता है । ऊर्ध्वमार्ग का प्रतिलोम अधोमार्ग और अधोमार्ग का प्रतिलोम ऊर्धमार्ग होता है इस लिये उभयमार्गगामी रक्त का प्रतिलोमही नही है । इस में वमन विरेचन कुछ भी नही दे सकते हैं । उभयगामी रक्तपित्त में चिकित्सा का भी अभाव है इसलिये यह असाध्य होता है || उक्त कथन का कारण । नहि संशोधनं किंचिदस्त्यस्य प्रतिलोमगम् । For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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