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अष्टांगहृदय ।
अ०३
अर्थ--दाख, पीपल, तृणपंचमूल, इनको | कासमकवार्ताकव्याघ्रीक्षारकणान्वितैः । चौगने जल में पकाकर चौथाई शेष रहने धान्वबेलरसैः स्नेहस्तिलसर्षपनिवजैः। ४३॥ पर उतार कर छानले, इस काथमें दूध को
अर्थ-देवदारु की लकडी का एक सिरा पकाकर ठंडा करले फिर उसमें शर्करा
जलानेसे दूसरी ओरसे जो स्नेह पदार्थ टपके और मधु मिलाकर पान करे । इसी क्वाथ
उसको एक पात्रमें इकट्ठा करले । इसमें में पेया तयार करके ठंडी होने पर शहद
| सोंठ, पीपल, कालीमिरच, और जबाखार मिलाकर देवै ।
मिलाकर कफ और खांसी से युक्त रोगी को
| पान करावै । यदि रोगी वलवान हो तो शठयादिरस शाहीवेरवृहतीश कराविश्वभेषजम् । ३७।
स्नेहपान के अनंतर स्निग्ध रोगी को युक्ति पिष्वा रसं पिवेत्पूतं वस्त्रेण धूतमूर्छितम्। के अनुसार तीक्ष्ण अधोविरेचन, उर्ध्वविरे___ अर्थ-पैतिक काम में कचूर, नेत्रवाला, चन और शिरोविरेचन देवे परन्तु रोगी के वडी कटेरी, सोंठ, इन सब द्रव्यों को जलमें | वलपर दृष्टि रखना आवश्यकीयहै । तदनंतर पीसकर वस्त्रमें छानकर इस रसमें शर्करा संसर्गी अर्थात् पेयापानादि क्रमका अबलंबन और घृत मिलाकर पान करावे । करे । । संसगी करनेका यह क्रमहै कि जौ,
पित्तकास में अवलेह । मुंग, और कुलथी द्वारा यथायोग्य उष्णवीर्य, शर्करा जीवकं मुद्माषपर्यो दुरालभाम् ॥ रूक्ष और कटुगुणाधिक्य द्रव्य तथा कसौंदी कल्कीकृत्य पचेत्सर्पिः क्षीरेणाष्टगुणेन तत् ।
| बेंगन, कटेरी, जवाखार और पीपल, जांगल पानभोजन लेहेषु प्रयुक्तं पित्तकासजित् ॥
और विलेशय जीवों का मांसरस, तथा तिल, लिह्याद्वा चूर्णमेतेषां कषायमथवा पिवेत्। अर्थ-शर्करा, जीवक, मुद्गपर्णी, माष
सरसों और नीमका तेल इन सब द्रव्योंके पर्णी, और धमासा, इन सब द्रव्योंका कल्क
साथ संप्सर्गी पान करनेको दे । करके अठगुने दूधमें घृतका पाक करे, फिर
अन्य उपाय।
दशमूलांवु धर्माबु मधं मध्वंबु वा पिवेत्। इसका पान, भोजन और अवलेह द्वारा प्रयुक्त
मूलैः पौष्करशम्याकपटोलैः संस्थितं निशाम् करनेपर पित्तकास नष्ट होजाताहै । अथवा पिवेद्वारि सहक्षौद्रं कालेष्वन्नस्य वा त्रिषु । उक्त द्रव्योंका कषाय वा पूर्ण सेवन करने अर्थ-कफकासमें दशमूल का काथ, से पित्तकास जाता रहताहै । | सूर्यको किरणों से प्रतप्तजल, मद्य और मधु
कफकास की चिकित्सा। मिश्रित जलपान करे । पुष्करमूल, अमलतास "कफकासी पिबेदादौ सुरकाष्ठात्प्रदीपितात् | और पटोल की जड इनको रात्रिमें जलमें नेहं परिघुतं व्योषयवक्षारावचूर्णितम्। | भिगोदेवै । दूसरे दिन प्रातःकाल मधु मिनिग्धं विरेचयेदूर्ध्वमधो मूर्ध्नि च युक्तितः॥ लाकर पान करे । अथवा भोजन कालके तक्ष्णैर्विरेकैलिनं संसर्गी चास्य योजयेत् । यवमुद्रकुलत्थान्नैरुष्णरूक्षैः कटूत्कटैः। ४२।। पहिले, बीचमें और अन्तमें पान करे ।
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