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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ०७ उत्सरस्थान भाषाटीकासमेत । (७५९) उन्माद की अप्राप्ति । तान्खादन्बमन्फेनं हस्तौपादोचविक्षिपन् निवृत्तामिषमद्यो यो हिताशी प्रयतः शुचिः पश्यन्नसंति रूपाणि प्रस्खलन्पतति क्षिती। निजागंतुभिरुन्मादैः सत्ववान्न स युज्यते'१८ विजिह्माक्षिभ्रवो दोषवेगेऽतीत विबुध्यते । ___ अर्थ-जो मनुष्य मद्य मांसका सेवन न कालांतरेण स पुनःश्चैवमेव विचेष्टते। अर्थ-जिस रोग में स्मृति का नाश हो करके हितकारी भोजन करता है, जो संय. जाता है, उसे अपस्मार कहते हैं । वुद्धि मवान और पवित्र होता है वह सात्विक पुरुष दोषज वा आगन्तुज किसी प्रकारके उ. और सत्वगुण में विप्लव होने के कारण न्माद से पीडित नहीं होता है ! चिंता शोक और भयादि द्वारा आक्रमित हुआ चित्त तथा उन्माद के सदृश चित्त और - बिगत उन्माद के लक्षण । देहमें रहनेवाले प्रकुपित दोषों से सत्वगुण प्रसाद इन्द्रियार्थानां वुध्यात्मामनसां तथा। धातूनां प्रकृतिस्थत्वं विगतोन्मादलक्षणम्।। नष्ट होकर हृदय और संज्ञावाही संपूर्ण अर्थ-संपूर्ण इन्द्रियों के विषय, तथा बु स्रोतों में व्याप्त होजाता है इसी से स्मृति का नाश होकर अपस्मार उत्पन्न होता है। द्धि, आत्मा और मनकी प्रसन्नता हो जपय तथा संपूर्ण धातु अपनी प्रकृति पर आजावें अपस्मार में रोगी की आंखों के आगे तब जान लेना चाहिये कि उन्माद रोम अवेरा छा जाता है, और वह मूढमति जाता रहा है। होकर निंदित कामों को करने लगता है, इतिश्री अष्टांगहृदयसंहितायां भाषाटी हाथों को चलाता है, झाग डालता है, हाथ कान्वितायां उत्तरस्थाने उन्मादप्रति पांवों को इधर उधर फेंकता है, अनहुए षेधोनाम षष्ठोऽध्यायः । रूप और आकृतियों को देखकर सहसाभूमि में गिर पडता है, उसकी आंख और भृकुटी टेढे पड जाती है, दोषका वेग दूर सप्तमोऽध्यायः हो जाने पर रोगी होश में आजाता है, समयान्तर में फिर ऊपर लिखी हुई दशाको अथाऽतोपस्मारप्रतिषेधं व्याख्यास्यामः। । प्राप्त हाजाता है। अथे-अब हम यहां से अपस्मार प्रति. अपस्मार के भेद । षेध नामक अध्याय की व्याख्या करेंगे। | अपस्मारश्चतुर्भेदो वाताद्यैर्निचयेन तु ५॥ अर्थ अपस्मार के चार भेद होते हैं, अपस्मार के लक्षण । "स्मृत्यपायोद्यपस्मारसंधिसत्वाभिसंप्लवात् | । यथा वातज, पित्तज, कफज और सन्निपातज जायतेऽभिहते चित्ते चिंताशोकभयादिभिः। अपस्मार का पूर्वरूप। उन्मादवत्प्रकुपितैश्चित्तदेहगतर्मलैः । | रूपमुत्पित्स्यमानेऽस्मिन्हृत्कंपाशून्यताभ्रमः हते सत्वे हदि व्याप्ते संशावाहिषु खेषु च | तमसो दर्शनं ध्यान भ्रव्युदासोक्षिवैकृतम् समोविशन्मूढमति ीभत्साः कुरुते कियाः। अशद्धवणं स्वेदो लालासिंघाणकन्नतिः। For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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