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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अ०२२ www. kobatirth.org चिकित्सितस्थान भाषाठीकासभेत । अन्य लेप | घृतं सहचरान् मूलं जीवंतीच्छागलं पयः । लेपः पिष्ट्वा तिलास्तद्वदृष्टाः पयसि निर्वृताः अर्थ- सहचरी और जीवंती की जड़ों के कल्क में घी और बकरी का दूध मिलाकर लेप करे, अथवा तिलों को भूनकर दूध में डालकर लेप करने से पूर्ववत गुण होता है । अन्य लेप | क्षीरपिष्ठेक्षुमालेपमेरंडस्य फलानि वा । कुर्याच्छुलानेवृत्यर्थशताह्वां वाऽनिलेऽधिके ॥ अर्थ-- अलसी, वा अरंड के बीज अथवा सौंफ को दूधमें पीसकर लेप करनेसे ऐसा शूल जाता रहता है, जो वातकी अधिकता से हो । अन्य घृत । मूत्रक्षारसुरापक्कं घृतमभ्यंजने हितम् । अर्थ -- गोमूत्र, जवाखार और सुरा के साथ, पकाया हुआ घी पाक करके मर्दन करे तो वातजन्य वेदना शांत होजाती है । अन्य प्रयोग | सिद्धं समधुशुकं वा सेकाभ्यंगे अर्थ-उक्तरोग में मधुमिश्रित शुद्ध परिषेक और अभ्यंग द्वारा हितकारी होता है । कफोत्तर वातरक्त में चिकित्सा | कफोत्तरे ॥ ३५ ॥ ग्रहधूमो वच्चा कुष्ठं शताह्वा रजनीद्वयम् । प्रलेपः शूलनुद्वातरक्ते अर्थ- कफाधिक्य वातरक्त में गृहधूम, बच, कूठ, सौंफ, हलदी और दारुहळदीका लेप करने से शूल नष्ट होजाता है । वातकफाधिक्य की चिकित्सा | वातकफोत्तरे ॥ ३६ ॥ मधुशिप्राोहितं तद्वद्वजिं धान्याम्लसंयुतम् । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ((que) अर्थ - वातकफाधिक्य वातरक्त में लाल सहजने के बीजों को कांजी में पीसकर लेप करना हितकारी है । वातकफाधिक्य में परिषेक | मुहूर्तलिप्तमम्लैश्च सिचेद्वातकफोत्तरे ॥ अर्थ - इस लेप करने के एक घंटे पीछे कांजी आदि अम्ल द्रव्यों के परिषेक से वातकफाधिक्य वातरक्त जाता रहता है । उत्तान वातरक्त की चिकित्सा | उत्तानं लेपनाभ्यंगपरिषेकावगाहनैः अर्थ - उत्तान वातरक्त की चिकित्सा लेप, अभ्यंग, परिषेक और अवगाहन द्वारा करनी चाहिये । गंभीर वातरक्त की चिकित्सा । बिरेकास्थापनैः स्नेहपानैर्गेभीरमाचरेत् ॥ अर्थ- गंभीर वातरक्त की चिकित्सा विरेचन, आस्थापन और स्नेहपान द्वारा करनी चाहिये । वातकफोत्तर में लेप | बातश्लेष्मोत्तरे कोष्णा लेपाद्यास्तत्र शीतलैः विदाहशोफरूकडूविवृद्धिः स्तंभनाद्भवेत् । अर्थ- वातकफाधिक्य वातरक्त में कुछ गरम लेप हितकारी होते हैं । इसमें ठंडे लेप 1 करने से स्तंभन के कारण विदाह, सूजन वेदना और खुजली की बृद्धि होती है । पित्तरक्तोत्तर में लेप । पित्तरतोत्तरे वातरक्ते लेपादयो हिमाः । उष्णैः प्लोषोपरुग्रागस्वेदापदरणोद्भवः । अर्थ - पित्तरक्ताधिक्य वातरक्त में ठंडे लेप करने चाहियें, इसमें गरम लेपों के करने से दाह, वेदना, ललाई, पसीना और विदरण अर्थात् फटना पैदा होता है । For Private And Personal Use Only .
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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