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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अ० १९ www. kobatirth.org उत्तरस्थान भाषाटीका समेत । दूषित रक्त से प्रतिश्याय । दुष्टं नासा सिराः प्राप्य प्रतिश्यायं करोत्यसृक्क उरसः सुतता ताम्रनेत्रत्वं श्वासपूतिता ॥ कंङ्कः श्रोत्रामा सासु पित्तोक्तं चात्र लक्षणम् । अर्थ - दूषितरक्त नासिका के सिर समूहों में प्राप्त होकर प्रतिश्याय उत्पन्न कर देता है। इस रक्तजप्रतिश्याय से वक्षःस्थल में सुप्तता, नेत्रों में तांबेका सा रंग, श्वास में दुर्गाधि, आंख कान और नाक में खुजली, ये सब लक्षण तथा पित्तजप्रतिश्याय के संपूर्ण लक्षण उपस्थित होते हैं । दुष्ट प्रतिश्याय के लक्षण | सर्व एव प्रतिश्याया दुष्टतां यांत्युपेक्षिताः ॥ यथोक्तोपद्रवाधिक्यात्स सर्वेन्द्रियतापनः। साग्निखादज्वरश्वासकासोरः पाश्र्ववेदनः ॥ कुष्यत्यकस्माद्बहुशो मुखदौर्गध्य शोफकृत् । नासिकाक्लेदसंशोषशुद्धिरोधकरो मुहुः ॥ पूयोपमा सिता रक्तप्रथिता श्लेष्मसंस्खतिः । मूर्च्छति चात्र कृमयो दीर्घस्निग्धसिताँण बः ॥ अर्थ- सब प्रकार के प्रतिश्याय चिकिसा में उपेक्षा होने से दुष्टता को प्राप्त हो जाते हैं । यह दुष्ट प्रतिश्याय पहिले कहे हुए मुखशोषादि उपद्रवों की अधिकता के कारण संपूर्ण इन्द्रियों में संताप, अग्निमें शिथिलता, ज्वर, श्वास, खांसी, वक्ष:स्थल और पसवाडे में वेदना, सहसा बार बार व्याधि का प्रकोप, मुखमें दुर्गन्धि सूजन कभी नासिका में गीलापन, कभी सूखापन, कभी शुद्धि, कभी रुकावट, तथा राधके समान काले रंग वाली रुधिर की गांठों से युक्त कफका स्राव | ये सब लक्षण उपस्थित होते हैं । इस दुष्ट प्रतिश्याय में लंबे, चिकने, सफेद १०५ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ८२५ ) रंगके बहुत पतले पतले कीडे पैदा हो जाते हैं । प्रतिश्याय के लक्षण | पक्कलिंगानि तेष्वंगलाघवं क्षषथोः शमः । मा सचिक्कणः पीतो ज्ञानं च रसगंधयोः। अर्थ --अंग में हलकापन, छींकों की शांति, चिकना और पीला कफ, रस और गंधका प्रतिश्याय के पकने के लक्षण जाने जाते हैं । यथावत् ज्ञान । इन बातों के पैदा होने से भृशंव के लक्षण | तक्ष्णिघ्राणोपयोगार्क रश्मिसूत्र तृणादिभिः । वातको पिभिरन्यैर्वा नासिकातरुणास्थिनि ॥ विघट्टितेऽनिलः क्रुद्धो रुखः शृंगाटकंब्रजेत् । निवृत्तः कुरुतेऽत्यर्थे क्षवथुं स भृशं - क्षवः ॥ १५ ॥ अर्थ - मरिचादि तीक्ष्ण द्रव्यों के उपयोग से, सूर्य की किरणों से, डोरे वा तिनुके से अथवा बातको प्रकुपित करनेवाली अन्य क्रियाओं से नासिका की तरुण अस्थि विधात होजावे, और वायु कुपित होकर और रुककर शृंगाटक मर्म में पहुँच कर अत्यन्त छोंक पैदा करदेती है, इसे रोग कहते हैं । For Private And Personal Use Only في नासिकाशांष के लक्षण | शोषयनासिकास्त्रोतः कफं च कुरुतेऽनिलः । शुकपूर्णाभना सात्यं कृच्छ्रादुच्छ्वसनं ततः । स्मृतोऽसौ नासिकाशोषी अर्थ - वायु नासिका के छिद्र और कफ को सुखाकर नासाशोष नामक रोगको पैदा' करदेती है, इस रोगमें नासिका काट से भरी हुईसी प्रतीत होने लगती है, और श्वास भी बड़ी कठिनता से लियाजाता है ।
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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