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अ० ७
चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत ।
(५३३)
बहुत से शालनसे युक्त तथा वक्ष्यमाण अष्टांग न बातोंसे कफकी अधिकता वाला मदात्यय लवण से संयुक्त अनेक प्रकार से बनाये हुए / शीघ्र नाश होजाता है । मांस के पदार्थो को खा कर ऊपर से पुराना । सन्निपातज मदात्यय में चिकित्सा माधव संज्ञक मद्यपान करै।
यदिदं कर्म निर्दिष्टं पृथग्दोषबलं प्रति॥
सन्निपाते दशविधे तच्छेषेऽपि विकल्पयेत् कफप्राय मदात्ययमें अष्टांगलवण । |
लवण । । अर्थ-पृथक् पृथक् दोषोंकी जो चिकित्सा सितासौवर्चलाजाजीतित्तिडीकाम्लबेतसम्॥
सम्॥ ऊपर वर्णन कर चुके हैं, जैसे तत्र वातोल्वत्वगेलामरिचाधीशमष्टांगलबणं हितम् । स्रोतोविशुद्यग्निकरं कफप्राये मदात्यये ॥
णे मद्यमिति, पित्तोल्वणे बहुजलमित्यांदि, अर्थ-कफकी अधिकतावाले मदात्यय में
तथा उल्लेखनोपतापाभ्यां जयेत् श्लेष्मोल्वणखांड, संचलनमक,कालाजीरा, इमली, अमल
मित्यादि, इसके अनुसार दोष और बलपर वेत, सब एक एक भाग, दालचीनी, इला
ध्यान देकर उक्त चिकित्साविधि की अनेक
प्रकार की कल्पना करके शेष दस x प्रकार यची और कालीमिरच प्रत्येक आधा भाग, ये
के सान्निपातिक मदात्यय में प्रयोग करना अष्टांग लवण हित है, यह स्रोतोंको खोल दे
उचित है । जैसे वाताधिक्य सान्निपातिक मता है और जठराग्नि को बढाता है ।
दात्ययमें जो क्रिया कही गई है तथा पित्ता__कफज मदात्ययमें जागरणादि । रूक्षोप्णोद्वर्तनोद्धर्षस्नानभोजनलंघनैः ॥
विक्य सांनिपातिक मदात्यय में जो क्रिया कसकामाभिः सह स्त्रीभियुक्त्या जागरणेन व॥
ही गई है । उन दोनोंको मिलाकर वातापत्ता मदात्ययः कफप्रायःशीघ्र समुपशाम्यति। धिक्य सान्निपातिक मदात्यय में चिकित्सा क
अर्थ-रूक्ष और उष्ण उबटना, घर्षण, | रनी चाहिये । इस तरह दोष वलका बिचार स्नान, भोजन, लंघन और कामवती स्त्रियों करके सव प्रकारके सान्निपातिक मदात्ययों में का सहवास और युक्तिपूर्वक रात्रिजागरण इ । चिकित्सा का मार्ग अवलंबन करना चाहिये।
उत्कर्षेण यदात्वे को मध्येन द्वौ तदाऽऽदिमः । उत्कर्षेण यदा द्वौतु मध्येनैको द्वितीयक: एको मध्येन दोषः स्याद द्वावल्पेन तृतीयकः । उत्कर्षेणैक एव स्यादल्पेन द्वौ चतुर्थकः उत्कर्षेण यदा द्वौ तु अल्पेनैकश्च पंचमः । एकोल्पेन तु मध्यन द्वौ दोषाविति षष्ठकः।उत्कर्षिणः समस्ताः स्युरेवं भबति सप्तमः । मध्येन सर्वेपि यदा तदा भवति चाष्टमः । अल्पेन सर्वेपि यदा तदा तु नवमः स्मृतः । अल्पेनैको मध्येनैकस्तरामन्य इति स्फुटाः । संनिपातस्य मुनिना दश भेदा प्रकीर्तिताः । अर्थात् (१) एक दोष का उत्कर्ष, दो दोषों की मध्यावस्था । (२] दो दोषों का उत्कर्ष, एक दोष की मध्यावस्था । (३) एक दोष की मध्यावस्था, दो दोषों की अल्पावस्था । (४) एक दोष का उत्कर्ष, दो दोषों की अल्पता, (५] दो दोषों का उत्कर्ष, एक दोष की अल्पता [६] एक दोष की अल्पता दो दोषों की मध्यावस्था, (७) तीनों दोषों की उत्कर्षता, (८) तीनों दोषों की मध्यावस्था, (९) तीनों दोषों की अल्पावस्था (१० ] एक दोष की अल्पावस्था, एक की मध्यावस्था और एक की उत्कर्षता । ये दश प्रकार के सन्निपात है ॥
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