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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत । निकालते हैं । सूक्ष्म सोतों में प्रविष्ट होना- अर्थ-उद्भिद नमक ( जो जमीन फोड. तेहैं । मलभेदक, वायुनाशक, अपक्व व्रणों कर निकलता है उसे उद्भिदनमक कहते हैको पकानेवाले, तीक्ष्ण, उष्णवीर्य, रुचिकर खार वाले स्थान पर जो छोटी २ तह जमतथा कफपित्तको बढाने वाले हैं । जातो है वही यह नमक है)। कुछ कडवा सेंधानमक । तीखा और खारा होता है यह तीक्ष्ण है और सैंधवं तत्र सस्वादुःवृष्यं हृधं त्रिदोषनुत् ।। प्रकुपित दोष को शीघ्र स्थान च्युत करदेताहै। लम्वनुष्णं दृशः पथ्यमविदाह्याग्निदपिनम् ॥ ____अर्थ- सेंधानमक कुछं मधुर, वीर्यजनक कालानमक। कृष्णे सौवर्चलगुणा लवणे गधवर्जिताः। हृदयको हितकारी, त्रिदोषनाशक, हलका, ___अर्थ-काला नमक संचलनमक के तुल्य कुछ गरम, दृष्टिको हितकारी, विदाही और गुणकारी होताहै, किन्तु सुगन्धित नहीं होता अग्निसंदीपन है । काचनमक । संचल नमक । रोमकं लघु पांसूत्थं सक्षारं श्लेष्मलं गुरु ॥ लघु सौवर्चलं हधं सुगंध्युद्गारशोधनम् ।। कटुपाकं विवंधनं दीपनीयं रुचिप्रदम् १४५ अर्थ--काचका नमक हलका होता है । __ अर्थ-संचल नमक, हलका, हदय को शोरा ईषत् क्षारयुक्त कफवर्द्धक और भारी हितकारी, सुन्दर सुगन्धियुक्त, डकारको शु. होता है। द्ध करनेवाला, कटुपाकी बिबंधनाशक, अ लबण का प्रयोग। लवणानां प्रयोगे तु सैंधवादीन प्रयोजयेत् । ग्निसंदीपन, और रुचिवर्द्धक है। ___ अर्थ--जहां नमक के प्रयोग का वर्णन बिडनमक । किया गया हो वहां प्रथम संधेनमक का ऊर्ध्वाधः कफवातानुलोमनं दीपनं बिडम् । विधानाहविष्टंभशूलगौरवनाशनम् ।१४६॥ ग्रहण करना चाहिये । जो दो नमक का ___ अर्थ-बिडनगक ऊपर और नीचे को कथन हो तो सेंधा और संचल ग्रहण करै जानेवाले कफ और वात को स्वमार्गानुगामी तीन नमक का कथन हो तो सेंधा, संघल कर देता है । अग्निसंदीपन, बिबंध, आ और बिडनमक का ग्रहण करै । इसी तरह नाह, विष्टंभ शूल और भारापन को दूर और भी। कर देता है । ___जवाखार के गुण । सामुद्र नमक । गुल्महृद्ग्रहणीपांडुप्लीहानाहगलामयान् ॥ विपाके स्वादु सामुद्रं गुरुश्लेष्मविवर्धनम् । श्वासार्शःकफकासांश्च शमयेद्यवशूफजः । - अर्थ-सामुद्र नमक स्वादुपाकी, भारी, ___ अर्थ--जवाखार गुल्म, हृद्रोग, ग्रहणी, और कफ बढानेवाला है । पांडुरोग, प्लीहा, आनाह, कंठरोग, श्वास, उद्भिद नमक । ववासीर, कफ, खांसी इन रोगों को दूर सतिक्तकटुकक्षारं तीक्ष्णमुत्क्लेदि बौद्भिवम् करता है । For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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