________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
(M2)
www. kobatirth.org
अष्टादये।
इस में दृष्टांत । अश्मनो जन्म लोहस्य तत एव च तीक्ष्णता । उपघातोSपि तेनैव तथा नेत्रस्य तेजसः २०
अर्थ- जैसे पाषाण से लोह की उत्पत्ति होती है और उसी तरह पत्थर पर घिसने से लोहे में तीक्ष्णता होती है और उसी पाषाण की अधिक चोट से वही तीक्ष्णता मारी भी जाती है । वैसे ही तेजः पदार्थ द्वारा नेत्र का जन्म है और तेज पदार्थ के सम्यक् योग से नेत्र में तीक्ष्णता अर्थात् देखने की शक्ति बढजाती है और अतियोग होने से दृष्टि का नाश होजाता है, इसलिये दिन की गरमी के कारण दिन के समय अत्यन्त तीक्ष्ण आग्नेय द्रव्यों से बना हुआ अंजन न लगावै ।
रात्रि में तीक्ष्णांजन का निषेध | न रात्रावपि शीतेति नेत्रे तीक्ष्णांजनं हितम् । दोषमस्स्रावयत्स्तंभकंडूजाडयादिकारि तत् ।
अर्थ - रात्रि के समय भी कफ की अधिकता के कारण नेत्र बहुत शीतल अर्थात् कंडू और पिच्छिलता आदि कफ के लक्षणों से युक्त होजाते है इसलिये उस समय भी तीक्ष्ण जन लगाना उचित नहीं है क्योंकि रात्रिकाल की सौम्यता के कारण लगाया हुआ तीक्ष्ण अंजन दोषों को अच्छी तरह नहीं निकाल सक्ता है और नेत्रों में स्तब्धता, कंडू और जाड्यादि रोगों को पैदा कर देता है ।
अंजनके अयोग्य व्यक्ति । नाजयेद्भीतवमितविरिक्ताऽशितवेगिते । क्रुद्धज्वरिततांताक्षि शिरोरुकुशोक जागरे ।
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
२३
दृष्टेऽर्के शिरः नाते पीतयेोधूममद्ययोः । अजीर्णेऽग्न्यर्कसंतप्ते दिवा सुप्ते पिपासिते । अर्थ - भयभीत, वमित, विरिक्त, सयोभुक्त ( तत्काल भोजन के पीछे ), मलमूत्रादि के वेग से पीडित, क्रुद्ध, ज्वरपीडित, ग्लाननेत्र बहुत छोटे वा बहुत उजले पदार्थों के देखने से जिसकीं दृष्टि कम पड गई हो ) शिरोरोगग्रस्त, शोकार्त, रात्रिजागरण करनेवाला, सिर समेत स्नान करनेवाला, धूमपायी, मद्यपायी, अजीर्ण, अग्नि और सूर्य से सपा हुआ, दिन में सोया हुआ और प्यासा ये सब अंजन के योग्य नहीं हैं । तथा जिस दिन बादल हो रहे हों उस दिन भी अंजन न लगावै ।
W
न लगाने योग्य अंजन | अतितीक्ष्णमृदुस्तोकबहूच्छघन कर्कशम् । श्रत्यर्थ शतिलं तप्तमंजनं नावचारयेत् ॥२४ अर्थ - अति तीक्ष्ण, अति अल्प, अति अधिक, अति तरल,
अतिअति घन,
मृदु,
अतिकर्कश, अति शीतल और अति तप्त अजन न लगाना चाहिये ।
For Private And Personal Use Only
अंजन के पीछे का कर्तव्य | अथाऽनुमलियन् दृष्टिमतः संचारयेच्छनैः। अंजिते वर्त्मनी किंचिच्चालयेच्चैव मंजनम् । तीक्ष्णव्याप्नोति सहसान चोन्मेषनिमेषणम् । निष्पीडनं च वर्त्मभ्यां क्षालनं वा समाचरेत् ।
अर्थ - नेत्रमें अंजन लगाने के पीछे दृष्टि गोलकको न खोलकर धीरे धीरे नेत्रों के पलकों को उठाकर नेत्रके भीतर अंजनको धीरे धीरे संचालित करे ऐसा करने से तीक्ष्ण अंजन सब नेत्रमें व्याप्त होजाता है । इस काम