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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शारारस्थान भाषाटाकासमेत । [११] तत्क्षयात्तृभ्रमश्वासमोहहिध्माभिरंतकः ॥ | कटीतरुणसमितस्तनमूलेगबस्तयः। अर्थ-वृहत्यादिक सिरा मर्मों के विद्ध क्षिप्रापालापवृहतानितंबस्तनरोहिताः ५४॥ होने पर निरंतर गाढा गाढा रुधिर वडी | कालांतरप्राणहरा मासमासार्धजीविता। | उत्क्षेपौ स्थपनी त्रीणि विशल्यघ्नानिअधिकता से निकलता है, तथा रक्त के तत्र हि ॥ ५५॥ क्षय के कारण तृषा, भ्रम, श्वास, मोह और | वायुर्मासवसामज्जमस्तुलुंगानि शोषयन् । हिचकी आदि उपद्रव उपस्थित होकर | शल्यापाये विनिर्गच्छन् श्वासात्कासाच्चमृत्यु के भी कारण हो जाते हैं । __ हत्यसून् ॥ ५६ ॥ अर्थ-दो अपस्तंभ, चार तलहृत, दो - संधिमर्म विद्धके लक्षण । पार्श्वसंधि, दो कटीक और तरुण, पांचसीवस्तु शूकैरिवाकीर्ण रूढे च कुणिखता। | मंत, दो स्तनमूल, चार इंद्रवस्ति, चार क्षिप्र, बलचेष्टाक्षयः शोषः पर्वशोफश्च सधिजे ॥ ___ अर्थ-आवर्तादि संधिगत ममों के विद्ध दो अपलाप, दो वृहती, दो नितंब, दो स्तहोने पर वह स्थान शूरु धान्य के तुषों | नरोहित, ये तेतीस मर्म ऐसे हैं कि इनके की तरह आवृत हो जाता है, तथा मर्म विद्ध होनेपर कालांतर में मारते है अर्थात् का घाव भरजाने पर भी टोटापन और इनसे मरनेमें महिना पन्द्रह दिन लगजाता लंगडापन आ जाता है । वल और व्यापार है । दो उत्क्षेप, एक स्थपनी ये तीन मर्म की क्षीणता, सूखापन और जोडों में सू ऐसे हैं कि इनमें से शल्य निकालते ही मृत्यु हो जाती है इसका यह कारण है कि जन उत्पन्न होजाती है। जीवित नाश में कालका नियम । शल्य के निकलने पर वायु बाहर निकलकर नामिशखाधिपापानहृच्छंगाटकबस्तयः। मांस, वसा, मज्जा और मस्तिष्क इनका मटीचमातृकाःसद्यो निघ्नंत्येकानविंशतिः शोषण करती हुई श्वास और खांसी आदि सप्ताहः परमस्तेषां कालः कालस्य कर्षणे । उपद्रवों को उत्पन्न करके प्राणों का संहार अर्थ -नाभि एक, शंख दो, अधिप करदेती है। एक, अपान एक, हृदय एक, शृंगाटक अंगवैकल्यकारक मर्म । चार, बस्ती एक और मातृका आठ ये १९ फणावपांगौ विधुरौ नीले मन्ये कृकाटिके । मर्म ऐसे हैं जिनसे तत्काल मृत्यु होजाती है। अंसांसफलकावर्तविटपोकुिकुंदराः ५७ ॥ बहुत खिंचजाय तो ऐसे मर्माहत रोगी के सजानुलोहिताख्याऽऽणि कक्षाचक्कूर्च । कूर्पराः मरने का अधिक से अधिक काल एक वैकल्यमिति चत्वारि चत्वारिंशच्च कुर्वते ॥ हरंति तान्यपि प्राणान् कदाचिदभिधाततः। - अपस्तंभादि मोंका काल । अर्थ-दो फण, दो अपांग, दो विधुर त्रयस्त्रिंशदपस्तंभतलहत्पार्श्वसंधयः ५३ ॥ दो नीला, दो मन्या, दो काटिका, दोअंस सप्ताह है। For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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