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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ०१८ सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत (१६१) पीछे पेया पान करावे । दूसरे दिन प्रातःका | गारी पहिले तिनुके और ऊपलोंमें सिलगाई ल पेया पान कराव और संध्याके समय, जातीहै फिर वह क्रमसे बढती हुई महान विलेपी देवै । तीसरे दिन दोनों कालमें | स्थिर भौर सबको भस्म करनेवाली बलवान् विलेपी । चौथे दिन दोनों समय सौंठ और | होजातीहै इसीतरह दोपसे शुद्ध हुए मनुष्य नमक आदि मसाले बिना डाले मुद्गादियूष, को जठराग्नि पेयादि क्रमसे बलवान् होती और पांचवे दिन प्रातःकाल यही असंस्कृत | हुई महान् स्थिर और सबका पाचन करने यूष पान करै । फिर पांचवें दिन संध्याके में समर्थ होजाती है। समय और छटे दिन दोनों समय संस्कृत वमन विरेचनादि के बेग का नियम । मसाला डालाहुआ यूष, सातवें दिन एक जघन्यमध्यप्रवरे तु वेगाबार असंस्कृत मांस रस, दूसरी बार संस्कृत श्चत्वार इष्टा वमने षडष्टौ । दशैव ते द्वत्रिगुणा विरेकेमांस रस पान कराके आठवें दिनसे प्रकृति प्रस्थस्तथास्याद्विचतुर्गुणश्च ३१ भोजन अर्थात् यथारुचि भोजनों का सेवन । अर्थ-हीन वमन में चार, मध्यम वमन में करने लगे। छः और प्रधान वमन में आठ वेग होते हैं ___ अब मध्यम शुद्धिसे शुद्ध हुए मनुष्यका मी तरह हीन विरेचन में दस, मध्यम में क्रम इस प्रकार है कि प्रथम दिन दो बार बीस और उत्तम में तीस वेग होते हैं। एक पेया, फिर दो बार विलेपी, फिर दो बार वार जितना वमन वा विरेचन में बाहर निकल अकृत यूष, फिर दो बार कृत यूष, फिर पडता है उसी का नाम वेग है। हीन विरेदो बार अकृत मांसरस, फिर दो बार कृत | चन में एक प्रस्थ, मध्यम विरेचन में दो मांसरस देकर पीछे प्रकृति भोजन करावै । प्रस्थ और उत्तम विरेचन में चार प्रस्थ प्रमाण हीन शुद्धिसे शुद्ध हुए मनुष्यको एक बाहर निकलता है । बमन में इस से आधा एक बार ही पेया विलेपी, अकृत यूष कृत निकलता है। यूष, मांसरस का सेवन कराके प्रकृति भो वमन विरेचन का अंत । जन करावै । खरनाद भी कहतेहैं, 'विरे पित्तावसानं वमनं विरेकाके वमने श्रेष्ठ पेयादीनां त्रिकक्रमः । त्रिशो दध कफांतं च विरकमाहुः । द्विशो मध्यमे स्यादेकशस्तुकनीयसीति । अर्थ-वमन से जब पित्त आने लगे तो पेयादि क्रमका फल । समझना चाहिये कि वमन क्रिया सम्यक् रीति यथाऽणुरग्निस्तृणगोमयाद्यैः . से हो गई अव विशेष आवश्यकता नहीं है। संधुक्ष्यमाणो भवति क्रमेण । महान स्थिरः सर्वपचस्तथैव | विरेचन से आधा परिमाण वमन का होता शुद्धस्य पेयादिभिरंतराग्निः ॥३०॥ है । विरेचन कफान्त होता है अर्थात् जब मर्थ- जैसे आग की छोटीसी चिन- दस्त के साथ कफ आने लगे तव समझलेना For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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