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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [४२० ) अष्टांगहृदय । अ० १३ रोगीको कीटों स युक्त रक्त कफ मिला हुआ | वातपित्तामस्तृष्णास्त्रीष्वहर्षो मृदुलरः। तंद्रावलानलभ्रंशोलोढरं तं हलीमकम्।१९। फटा दस्त होता है। अलसं चेति शंसंति कामला की उत्पत्ति । ___ अर्थ-पांडुरोग में जब बातपित्त के प्रयः पांडुरोगी सेवेत पित्तलं यस्य कामलाम्। कोष्ठशाखाश्रयं पित्तंदग्ध्वासृक्मांसमावहत्। कोप से रोगीका वर्ण हरा, काला वा पीला हारिद्रनेत्रमूत्रत्वक्नखवक्त्रशकृत्तया ॥१६॥ होजाता है, तथा भ्रम, तृषा, स्त्रीसंगममें अदाहाविपाकतृष्णावान् भेकाभो दुर्बलेंद्रियः। रुचि, मृदुज्वर, तंद्रा, बलहीनता, अग्निमांद्य, अर्थ-जो पांडुरोगी मिरचआदि पित्त् | ये लक्षण उत्पन्न होते हैं, तब इसे हलीमक कारक द्रव्यों का अत्यन्त सेवन करता है, | कहते हैं इस हलीमक को लोढर और अ. उसके कुपित हुआ पित्त रक्त और मांसको लसक भी कहते हैं। दग्ध करके कोष्टशाखाश्रित कामला रोगको शोफका वर्णन । उत्पन्न करता है । रोगी के नेत्र, मूत्र, तेषां पूर्वमुपद्रवाः । त्वचा, नख, मुख और विष्टा हलदी के से | शोफप्रधानाः कथिताः स एवातो निगद्यते रंगके होजाते हैं । दाह, अविपाक, तृषा, | अर्थ-पांडुरोग में जितने उपद्रव होते हैं मड़क के सदृश पालारंग, आर इन्द्रया में | उन सव में प्रधान उपद्रव सूजन है इसलिदुर्बलता ये सब लक्षण उपस्थित होते हैं। ये पांडरोग का निदान कहकर पहिले सूजपांडरोगके बिनाभी कामलाकी उत्पत्ति। न काही वर्णन किया जाता है। भवेत्पित्तोल्वणस्याऽसौ पांडुरोगादृतेऽपि च सूजनकी उत्पत्ति । - अर्थ-जो मनुष्य पित्तकारक द्रव्यों को पित्तरक्तकफान्वायुर्दुष्टो दुष्टान् बहिःशिराः। अत्यंत सेवन करता है उसके यद्यपि पांडु नत्विा रुद्धगतिस्तैर्हि कुर्यात्त्वक्मांससंश्रयम् रोग न हो तो भी कामला रोग की उत्पत्ति उत्सेध संहतं शोफ तमाउर्निचयादतः। होजाती है। सर्व कुंभकामला। __ अर्थ-कुपित हुआ वायु, दूषित पित्त रक्त उपेक्षया च शोफाख्या साकृच्छाकुंभकामला और कफको बाहरवाली सिराओं में लेजाता . अर्थ-कामला रोग की चिकित्सा में | है और वेही दृषित पित्त रक्त कफ उसकी उपेक्षा ( लापर्वाही ) करने से सूजन बढ गतिको भी रोक लेते हैं तब वह वायु त्वचा जाती है और सूजनवाले कामला को | और मांसमें आश्रित एक निश्चल ऊंचाई पैकुंभकामला कहते हैं यह कष्टसाध्य हो- दा करदेता है , इसीको सूजन कहते हैं। ता है। क्योंकि सूजन वातपित्त कफ तीनों दोषोंके . हलीमक के लक्षण । संसर्गसे होती है इसलिये सब प्रकार की सूहरितश्यावपतित्वं पांडुरोगे यदा भवेत् ।। जन त्रिदोषज होती हैं । For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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