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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० १४ सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत । (१३१) अपतर्पण का पर्यायवाची शब्द लंवन है । | भेद है, एक शोधनापतर्पण, दूसरा शमनाजिसके द्वारा देहकी पुष्टि होतीहै उसे वहण | पतर्पण । करते हैं और जिसके द्वारा देहमें हलकापन संशोधन के लक्षण और भेद । होताहै उसे लंघन कहतेहैं । यदीरयेद्वाहिदोषान्पञ्चधा शोधनं च तत् । संतर्पण प्रायः भौम ( भूमिसंबंधी ) और निरूहो वमनंकाय शिरोरेकोऽनविभुतिः । । अर्थ-जो औषध शरीरस्थ वातादिक आप ( जलसंबंधी ) होतेहैं । तथा अपतर्पण दोषों को बाहर निकाल देती हैं वे संशोधन प्रायः अग्नि, वायु, और आकाशात्मक होतेहैं औषध कहलाती हैं, ये पांच प्रकार की होती इसका मतलब यह है कि पृथ्वी और जल महाभूतोंसे उत्पन्न हुई औषध संतर्पण और हैं जैसे-१निरूह ( गुदा में पिचकारी लगाना) २ वमन, ३ विरेचन, ४ शिरोविरेचन ५ अग्निवायु आकाश महाभूतों से उत्पन्न हुई रक्तस्रुति ( फस्द खोलना )। औषध अपतर्पण होती हैं। शमन के लक्षण । मूल में जो प्रायः शब्द दिया गया है न शोधयति यहापान समानोदरियत्यपि ॥ इस का यह तात्पर्य है कि जौ, मसूर, मोंठ समीकरोति विषमान् शमनं तच सप्तधा.। · आदि भौम होने पर भी अपतर्पण हैं । इसी पाचनं दीपन क्षुत्तृव्यायामातपमारताः । सरह सोंठ पीपल आदि भी अग्नि और वायु अर्थ-जो औषध शरीरस्थ वातादिक तत्व की अधिकता वाली भी सतर्पण गुण दोषों को बाहर नहीं निकालती है, तथा वाली मालूम होती हैं। अपने प्रमाण में स्थित वातादिक दोषों को स्नेहनादि कर्म को द्विविधत्व उत्क्लेशित भी नहीं करती है और विषन दोषों को समान भाव में ले आती है उस स्नेहन रुक्षग कर्म स्वेदन स्तंभनं च यत् ।। भूतानां तदपि द्वैव्याद्वितयं नाऽतिवर्तते । को संशमन औषध करते हैं । संशमन ___ अर्थ-स्नेहन, रूक्षण, स्वेदन और स्तंभन । औपध सात प्रकार की होती हैं, यथा, पाचन, इन चार प्रकार के कर्मों का समावेश संत- | दीपन, क्षुधानिग्रह, तृष्णा निग्रह, व्यायाम, पण और अपतर्पण इन दो प्रकारों के ही | आतप और वायु । अन्तर्गत है, क्योंकि भौमादि सब द्रव्य संत- वायु आदिका शमन । पण और अपतर्पण भेद से दो प्रकार के है | वृहणं शमनं त्वैववायोः पित्तानिलस्य च ॥ और स्नेहनादि चार प्रकार के कर्म इन्हीं | अर्थ-वहण द्रव्य, केवल वायु और पिन दो के अन्तर्गत हैं । युक्त वायु का शमन करते हैं, कदाचित् अपतर्पण के भेद । कुपित नहीं करते विशेषत: जो शरीर की शोधनं शमनं चेति द्विधा तत्राऽपि लंघनम् | पुष्ट करती हैं वे वहण है और जो शरीर अर्थ-लंघन अर्थात् अपतर्पण के दो | को कृश करती हैं अर्थात् बृहण का For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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