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ॐ
श्रीहरिम्बन्दे श्रीवृन्दावनविहारिणे नमः ॥ अथ शारीरस्थानम् ॥
प्रथमोऽध्यायः ।
अथाऽतो गर्भावक्रांतिशारीरं व्याख्यास्यामः। इर्तिस्माद्दुरात्रेयाइयो महर्षयः
अर्थ - तदनंतर आत्रेयादिक महर्षि कहने लगे कि अब हम गर्भावक्रांति शारीर नामक अध्यायकी व्याख्या करेंगे ।
गर्भहोने का कारण |
"शुद्धे शुक्रार्तवे सत्वः स्वकर्म क्लेशचादितः । गर्भः सपद्यते युक्तिवशादग्निरिवारणौ ॥ १ ॥ अर्थ-पिता के बीजको शुक्र कहते है । और स्त्रियों के मासिकधर्म के समय उनके अपत्यमार्गमें जोकुछ कालापन लिये हुए शुरू, गंधिरहित और वायु से प्रेरित रुधिर रहता है उसे आर्तव कहते हैं । पिताका शुक्र और माताका आर्तव गर्भका बीज है । जब यह शुक्रार्तव शुद्ध और वातादि दोषों से रहित होता है तब इसमें जीव गर्भता को प्राप्त होता है
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से अर्थात् उन कर्मों का शुभाशुभ फल भोग ने के लिये गर्भता को धारण करता है । वे कर्मकृत क्लेश ये हैं,अविद्या ( अयथार्थ वस्तुमें यथार्थता का ज्ञान ), अस्मिता ( में हूं यह अभिमान होना ), राग ( सुखकी इच्छा ) द्वेष, [ दुखका अनुशायी ]
जो कर्मक्लेश से रहित हैं उनका जन्म नहीं होता है, कहा भी है, चित्तमेवहि संसारि रागादि क्लेशदूषितम् । तदेव तैर्विनिर्मुक्तं भवांत इति कथ्यते ॥
तथा शुद्ध शुक्रावके संयोग के प्रभाव ही जीव गर्भको प्राप्त होता है जैसे मथ्य, मंथन और मंथन इनके संयोग से अरणी अर्थात् काष्ठ अनि निकलती है वैसे ही संपूर्ण सामग्रियों के सद्भाव से ही गर्भकी उत्पत्ति होती है ॥
गर्भाशय में जीवकीवृद्धि । वीजात्म के महाभूतैः सूक्ष्मैः सत्वानुगैश्च सः । मातुश्वाहाररसजैः क्रमात्कुक्षौ विवर्धते २ ॥
अर्थ - सत्वानुग (जहां जीव रहता है वहां वे भी अवश्य रहते हैं ) सूक्ष्म ( इन्द्रियों के विषयोंसे अगम्य केवल योगियोंसे देखने योग्य), वीजात्मक [ शुक्र शोणित रूप में
जीवके गर्भता प्राप्त करने का यहकारण है कि वह पूर्वजन्ममें किये हुए अपने अपने शुभ और अशुभ कर्मके क्लेशोंकी प्रेरणा |
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