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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अ० ७ www.kobatirth.org चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत । उनके शमन करने के लिये दूसरे विषकी अपेक्षा रहती है वे आपही अपने बल से शांत नहीं हो सकते हैं परंतु मद्य में जो दस गुण है वे हीनवृत्तिवाले हैं इसलिये उनकी शांति के लिये अन्य मद्यकी अपेक्षा नहीं होती हैं । विधिपूर्वक मद्यपान की उत्कर्षता । तीक्ष्णोष्णेनातिमात्रेण पीतेनाम्लविदाहिना ॥ मद्येनान्न सक्दो विदग्धः क्षारतां गतः यान्कुर्यान्मं दतृण्मोहज्वरांतहविभ्रमान् ॥ मद्योत्क्लिष्टन दोषेण रुद्धः स्रोतःसु मारुतः । सुतीव्र वेदना याश्च शिरस्यस्थिषु संधिषु ॥ जीर्णाममद्यदोषस्य प्रकांक्षालाघवे सति । यौगिकं विधिवद्युक्तं मद्यमेब निहंति तान् ॥ अर्थ - तीक्ष्ण, उष्णवीर्य, मात्रा से अधिक, और अम्लविदाही मद्य के पीने से अन्नरस क्लेदयुक्त, विदग्ध और क्षारयुक्त होकर मद, तृषा, मोह, ज्वर, अंतर्दाह और विभ्रमादि संपूर्णः उपद्रवों को उत्पन्न करता है । तथा भोजन के कारण मद्यसे उक्लिष्ट दोष द्वारा वायु स्रोत के मध्य में रुककर मस्तक, अस्थि और संधियों में जो तीव्र वेदना उत्पन्न होती हैं वे सब मद्यपीने वाले मनुष्य के मद्य के जीर्ण होनपर और मद्यपान की इच्छा कम होने पर उपयुक्त द्रव्यों के साथ और विधिपूर्वक प्रयुक्त किये हुए मद्यपान द्वारा शांत होजाती हैं । उक्तकार्य में हेतु | क्षारो हि याति माधुर्य शीघ्रमम्लोपसंहितः । मद्यमम् लेषुच श्रेष्ठ दोषविष्पदनादलम् | ८ | अर्थ--खटाई से मिलते ही क्षार द्रव्य शीघ्र ही मधुरता को प्राप्त होजाता है । सब ६७ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१२९. प्रकार के अम्ल द्रव्यों में मद्यही श्रेष्ट होता है, इसलिये तीक्ष्णोष्णादि गुणसंयुक्त मद्यका सेवन करने से अन्नरस में जो क्षारता उत्प न होती है वह अम्लप्रधान मद्य सेवनसे मधुरता को प्राप्त हो जाती है । इसका यह फल निकलता है कि अन्नरसमें जो क्षारता पैदा होनेके कारण उपद्रव होते हैं वे मद्यकी अम्लता के संयोग से शीघ्र ही शांत होजाते हैं । मद्यको धातुसाम्यकरत्व । तीक्ष्णष्णायैः पुरा प्रोक्तैर्दीपनाद्यैस्तथा गुणैः सात्म्यत्वाच्च तदेवास्य धातुसाम्यकरं परम् अर्थ - मदात्ययनिदान में कहे हुए तीक्ष्णोष्णादि गुणोंसे तथा मद्यवर्ग में कहे हुए दी - पनादि गुणोंसे तथा सात्म्य होनेके कारण मद्यही मदात्यय रोगी के लिये अत्यन्त धातुसाम्यकारक औषध है । पानात्यय का काल | सप्ताहमष्टरात्रं वा कुर्यात्पानात्ययौषधम् । जीर्यत्येतावता पान कालेन विपथा शुतम् ॥ अर्थ - पानात्यय औषध का सेवन सात आठ दिन तक करना चाहिये, इससे अधिक दिन तक सेवन करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि इतने ही समय में विमार्गस्थ मद्य जीर्णता को प्राप्त होजाता है । रोगानुसार औषध | परं ततोनुवन्नाति यो रोगस्तस्य भेषजम् यथायथं प्रयुजीत कृतपानात्ययौषधः । ११ । अर्थ-यदि पानात्यय औषध के सेवन पर भी जो रोग अधिक दिन तक रहैं तो उस रोगकी यथायोग्य और यथाविहित औषष करनी चाहिये । For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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