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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० १७ चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत । ८६४३) आसव, अरिष्ट, मुत्र और सक्र पान करने त्रिदोषज शोफ में चिकित्सा। चाहिये। अजाजिपाठापनपंचकोलअन्य प्रले आदि। व्याधीरजन्यः सुखतोयपीताः । कृष्णापुराणपिण्याकशिग्रुत्वसिकतातसीः शोफ त्रिदोष चिरज प्रवृद्धं निध्नंति भूनिवमहौषधैश्च ।। ३८॥ प्रलेपोन्मर्दने युंज्यात्सुखोष्णाताः । अर्थ-कालाजीरा, पाठा, मोथा, पंचमूत्रकालिकताः। अर्थ-पीपल, पुरानी खल, सहजने की। कोल, कटेरी, और हलदी इन सब द्रव्यों छाल, बालू और अलसी इन सबको गोमूत्र का चूण गुनगुन जलक साथ पान सं त्रिमें पीसकर और थोडा गरम करके लेप करे । दोषज सूजन जो बहुत दिनकी उत्पन्न और इसी से मर्दन करे । हुई हो और बढ़ गई हो, नाती रहती है । सूजन पर स्नान विधि । चिरायता और सोंठ का चूर्ण पीने से भी स्नान मूत्रांमसी सिद्धे कुष्टतर्कारिचित्रकैः। उक्त मूजन जाती रहती है।.. कुलत्थनागराभ्यां वा चंडागुरुविलेपने । अन्य प्रयोग। __ अर्थ-कूठ, तोरी और चीता इनसे अमृताद्वितयं सिवाटिका अथवा कुलथी और सोंठ डालकर सिद्ध सुरकाष्ठं सुपुरं सगोजलम् । श्वयथूदरकुष्ठपांडुता किये हुए जल और गोमूत्र से स्नान करना कृमिमेहोर्यकफानिलापहम् ।। ३९ ।। तथा शंखपुष्पी और अगर का लेप करना अर्थ-गिलोय, हरड, शिवाटिका, देवहित है। 1. दारु और गूगल इनको गोमूत्र के साथ पीने एकांग शोफ में ऐप। से सूजन, उदररोग, कोढ, पांडुरोग, क्रमि कालाजशृंगीसरलवस्तगंधाहयावयाः॥ ३६ रोग, प्रमेह, ऊर्ध्व कफ और ऊर्ध्व वात जाते एकैषिकाच लेपः स्याच्छ्वयथावकगात्रजे। रहते हैं। . अर्थ-नीलनी, मेंढासिंगी, सरलकाष्ठ, अजगंध, असगंध, और निसोथ इनका लेप क्षतोत्थ शोफ में कर्तव्य । इति निजमाधिकृत्य पथ्यमुक्तं करने से एकागज सूजन जाती रहती है । क्षतजनिते क्षतजं विशोधनीयम् । दोषानुसार शुद्धि। स्रतिहिमघृतलेपसेकरेकैयथादोषं यथासनं शुद्धिं रक्तावसेचनम्।। विषजनिते विषजिञ्च शोफ इष्टम् ॥ कुर्वीत मिश्रदोषे तु दोषोद्रेकबलाक्रियाम् ॥ अर्थ-पूर्वोक्त रीति से वातादि दोषों के अर्थ-दोषके अनुसार पासवाले स्थान अनुसार निज शोफका वर्णन किया गयाहै की शुद्धि और रक्तमोक्षण करना चाहिये । क्षतज सूजन में रक्तस्राव, शीतल घृत, और जो मिश्र दोष हों तो जो दोष अधिक शीतल लेप, शीतल परिषेक, और विरेच. ' हो उसके अनुसार चिकित्सा करनी चाहिये। नादि शोधन क्रिया करना चाहिये । वित्र For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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